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बालकाण्ड


तुलसी समाज राज तजि सा विराजै आजु,
गाज्यौ, मृगराज गजराज ज्यों गहतु हौं।
छोनी में न छाँड्यो छप्यौ छोनिप को छोना छोटो,
छोनिय छपन बाँको विरुद बहतु हौं॥

अर्थ—राजाओं की मण्डली में शिव के प्रचण्ड धनुष को तोड़ा, ऐसी कड़ी बाहु जिसकी हैं, उसी से मैं कहता हूँ। कठिन कुठार धरिवे के (सहने के) धैर्य्य को और उसके प्रख्यात बल को मैं देखना चाहता हूँ। हे तुलसीदास, वह राजाओं की समाज को छोड़कर आज विराजै अर्थात् बाहर हो जावे। ऐसा कहकर वह (परशुराम) गरजे। जैसे शेर हाथियों के राजा को पकड़ता है वैसे ही उसे पकड़ूँगा। पृथ्वी पर किसी राजा के छिपे हुए छोटे बच्चे को भी मैंने नहीं छोड़ा, मैं राजाओं के नाश करने का वाँका प्रण रखता हूँ।

शब्दार्थ—प्रचंड= कठिन। चंडीम= शिवनी। कोदंड= धनुष। छप्यौ= छिपा हुआ। छोना= बच्चा। छपन= नाश करने का। विरुद= प्रण। बहतु हौं= धारण करता हूँ।</small}}

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निपट निदरि बोले वचन कुठारपानि,
मानि त्रास औनिपन मानौ मौनता गही।
रोखे माखे लषन अकनि अनखौहीं वातैं,
तुलसी विनीत बानी विहँसि ऐसी कही॥
“सुजस तिहारो भरो भुवननि, भृगुनाथ!
प्रगट प्रताप आप कह्यो सो सबै सही।
टूट्यो से न जुरैगो सरासन महेशजू को,
रावरी पिनाक मैं सरीकता कहा रही॥”

अर्थ— कुठार हाथ में धारण करनेवाले (परशुरामजी) का निरादर करकें केंवल लक्ष्मणजी बोले और अन्य राजा तो मानों भय से चुप हो रहे। तुलसीदासजी कहते हैं कि लक्ष्मणजी को परशुरामजी की अनखौही बातें सुनकर गुस्सा आया परंतु विनीत भाव से हँसकर बोले कि हे परशुरामजी, तुम्हारा सुन्दर यश तो सब भुवनों में भरा है और जो कुछ आपने अपना प्रताप अब प्रकट रूप से कहा सो सब बिलकुल सही है,