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अयोध्याकाण्ड
सवैया
[२३]

कीर के कागर ज्यौं नृप चीर विभूषन, उप्पम अंगनि पाई।
औध[१] तजी मगबास[२] के रूख ज्यौं पंथ के साथी ज्यौं लोग लुगाई॥
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया मानो धर्म क्रिया धरि देह सुहाई।
राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई॥

अर्थ—रामचन्द्रजी के अंगों ने राजसी वस्त्र और आभूषणों को त्यागकर (छोड़कर) ऐसी शोभा पाई जैसे पंख गिराकर सुआ—अथवा केंचुल छोड़कर साँप। अवध को मगध के वृक्ष अर्थात् अरण्ड की तरह अथवा मग (रास्ते) में बाँस की तरह अथवा रास्ते के वास (ठहरने की जगह) की भाँति रामचन्द्रजी ने छोड़ दिया और उन स्त्री-पुरुषों को भी, जो रास्ते में साथ हो लिये थे, छोड़ दिया अथवा राह के संगियों की भाँति अयोध्यावासियों को छोड़ दिया। प्यारे भाई और स्त्री को साथ लिया। तब उनकी ऐसी शोभा हुई मानो धर्म और क्रिया देह धरकर शोभायमान हुए हैं। कमल के से नेत्रवाले रामचन्द्रजी बाप के राज्य को पथिक की तरह छोड़कर चल दिये।

शब्दार्थ—कीर=सुआ, सांप। कागर= रङ्गीन पर, केंचुलि। उप्पम=उपमा। बटाऊ=बटोही, रास्तागीर।

[२४]

कागर-कीर ज्यों भूषन चीर सरीर लस्यो तजि नीर ज्यौं काई।
मातु पिता प्रिय लोग सबै सनमानि सुभाय सनेह सगाई॥
संग सुभामिनि भाइ भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई।
राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई॥

अर्थ—आभूषण और वस्त्रों को त्यागकर राम का शरीर ऐसा शोभायमान हुआ जैसे पंख छोड़कर सुवा अथवा केंचुल छोड़कर साँप, और काई छोड़कर जल। माता,


  1. पाठांतर—अवध।
  2. पाठांतर—बाँस।