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कवितावली

[ २६ ]

"कीजै कहा, जीजीजू!" सुमित्रा परि पाँय कहै
"तुलसी सहावै बिधि सोई सहियतु है।
रावरो सुभाव राम-जन्म ही तें जानियत,
भरत की मातु को कि ऐसा चहियतु है?
जाई राजघर, ब्याहि आई राजधर माहँ,
राजपूत पाये हूँ न सुख लहियतु है।
देह सुधागेह ताहि मृगहू मलीन कियो,
ताहु पर बाहु बिनु राहु गहियतु है॥"

अर्थ―सुमित्रा ने पाँव पकड़कर कहा कि हे जीजी! क्या किया जावे, जो ब्रह्मा सहाता है वह सब सहना पड़ता है। आपके सुभाय को रामचन्द्रजी के जन्म ही से जानती हूँ परन्तु कैकेयी की करनी पर शोच आता है कि राजा के घर उत्पन्न हुई, राजा को व्याही आई और राजा का सा पुत्र पाकर भी उसे सुख नहीं मिला, चन्द्रमा अमृत का घर है उसे मृग ने मलिन किया और उस पर भी बिना वाहु वाला राहु उसे ग्रसता है अर्थात् वदन तो उसका चंद्रमा का सा सुंदर है परंतु हृदय चंद्रमा के मृग की भाँति काला है, उस पर भी अब ईर्षा रूपी राहु उसे ग्रसना चाहता है।

शब्दार्थ―सुधागेह = चंद्रमा।

सवैया

[ २७ ]

नाम अजामिल से खलकोटि अपार* नदी भव बूड़त काढ़े।
जो सुमिरे गिरि-मेरु सिलाकन, होत अजाखुर बारिधि बाड़े॥
तुलसी जेहि के पदपंकज तें प्रगटी तटिनी जो हरै अघ गाढ़े।
सो प्रभु स्वै सरिता तरिबे कहँ माँगत नाव करारे ह्वै ठाढ़े॥

अर्थ―जिसके नाम ने अजामिल ऐसे करोड़ों पापियों को संसार रूपी अपार नदी में से डूबते हुए निकाल लिया, जिसके सुमिरने से मेरु (पर्वत) कम हो जाता है


  • पाठान्सर―जासु के नाम अजामिल से खल कोटि।