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१९
अयोध्याकाण्ड
[३१]


जिनको पुनीत बारि, धारे सिर पै पुरारि,
त्रिपथगामिनि-जसु बेद कहै गाइ कै।
जिनको जोगींद्र मुनिबृंद देव देह भरि
करत विराग जप जोग मन लाइ कै॥
तुलसी जिनकी धूरि परसि अहल्या तरी,
गौतम सिधारे गृह गौनो सो लिवाइ कै।
तेई पायँ पाइकै चढ़ाइ नाव धोये विनु
ख्वैहौं न पठावनी कै ह्वैहों न हँसाइ कै?॥

अर्थ—जिन (चरणों) का पवित्र जल (चरणोदक) ऐसी गंगा के रूप में महादेवजी शिर पर रखते हैं, कि जिनका तीनों लोकों को पवित्र करने के लिए बहने का यश वेद भी गाते हैं जिन चरणों के दर्शन के लिए बड़े बड़े योगी, मुनि और देवता जन्म भर वैराग्य, यज्ञ और योग मन लगाकर करते हैं, हे तुलसीदास, जिन चरणों की धूल छूकर अहिल्या तर गई और गौतम (उसके प्रति) गौना सा लिवा घर चले गये, उन चरणों को पाकर विना धोये नाव पर चढ़ाकर अपनी मज़दूरी न खोऊँगा और न अपनी हँसी कराऊँगा। शब्दार्थ—बारि= जल। त्रिपथगामिनी= तीनों लोकों में बहनेवाली, गंगा। देह भरि= जन्म भर। पठावनी= मज़दूरी, नाव।

[३२]


प्रभुरुख पाइकै बोलाइ बाल घरनिहिँ ,
बंदि कै चरन चहूँ दिसि बैठे घेरि घेरि।
छोटो सो कठौता भरि आनि पानी गंगाजू को,
धोइ पाँँय पीयत पुनीत बारि फेरि फेरि॥
तुलसी सराहैं ताको भाग सानुराग सुर,
बरषैं सुमन जय जय कहैं टेरि टेरि।