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अयोध्याकाण्ड

अर्थ―लक्ष्मणजी पानी लेने गये हैं, अभी लड़के हैं, हे प्यारे! छाँह में खड़े होकर घड़ी भर उनकी राह देख लो। आपका पसीना पोंछकर हवा कर दूँ और इस बालू में भुने पैरों को धो दूँ। हे तुलसी! सीताजी को थकी जानकर रामचन्द्र ने बड़ी देर तक बैठकर पैर के काँटे निकाले। सीताजी ने रामचन्द्रजी का प्रेम देखा, उनका शरीर पुलकित हो गया और आँखों में आँसू भर आये।

शब्दार्थ―पसेउ = पसीना। भूभुरि ढाढ़े = गरम मिट्टी से जले हुए।

[ ३५ ]

ठाढ़े हैं नौ* द्रुम डार गहैं, धनु काँधे धरे, कर शायक लै।
बिकटी भ्रकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है॥
तुलसी असि† मूरति आनि हिये जड़ डारिहौं‡ प्रान निछावर कै।
स्त्रम सीकर साँवरि देह लसै मनो रासि महातम तारक मै॥

अर्थ―(रामचन्द्र) नवीन वृक्ष की डार पकड़े और कन्धे पर धनुष धरे हाथ में बाण लिये खड़े हैं। टेढ़ो भौहें किये हैं। बड़ी बड़ी आँखें हैं और गालों की शोभा अनमोल है (जिसका कुछ मोल नहीं)। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसी मूर्ति को हृदय में लाकर जड़ प्राणों को उन पर निछावर कर दूँगा, अथवा तुलसीदासजी (अपने आपसे) कहते हैं कि ऐसी मूर्ति को हृदय में ला, हे मूर्ख! इस पर प्राण निछावर कर डाल। परिश्रम से निकले पसीने के बिन्दुओं से भरी साँवली देह ऐसी शोभायमान है जैसे तारों भरी बड़ी अँधेरी रात।

शब्दार्थ―नौ = नव, नया। द्रुम = पेड़। विकटी = टेढ़ी। बड़री = बड़ी। स्रम सीकर = परिश्रम से निकले पसीने की बूदें। तारक = सारे। मै = मय = के साथ (उर्दू शब्द)।

घनाक्षरी

[ ३६ ]

जलजनयन, जलजानन, जटा हैं सिर,
जोबन उमंग अंग उदित उदार हैं।



*पाठांतर―नव।
†पाठांतर―अस।
‡पाठांतर―डारु धौं।