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अयोध्याकाण्ड

अर्थ―आगे आगे साँवले कुँवर शोभा पा रहे हैं और गोरे कुँवर पीछे हैं। दोनों मुनियों का-सा सुन्दर रूप धारण किये कामदेव को भी लजा रहे हैं। बाण, धनुष, और वस्त्र वन के ही बने धारण किये हैं और कटि पर अच्छे तरकस कसे हैं, जो अति शोभा पा रहे हैं। साथ में चन्द्र-बदनी सीता लक्ष्मी सी रास्ते में चली जाती हैं। हे तुलसी! देखते ही मन अपने सङ्ग में लगा लेते हैं। मन में आनन्द की उमङ्ग, शरीर में यौवन की उमङ्ग, और रूप की उमङ्ग अङ्ग-अङ्ग में उमड़ रही है।

शब्दार्थ―बिसिषासन = धनुष। निशिनाथ = चन्द्रमा। पाथनाथ-नंदिनी = पाथ (जल)। नाथ = पाधनाथ (समुद्र)+नंदिनी = कन्या, अर्थात् लक्ष्मी।

[ ३८ ]

सुंदर बदन, सरसीरुह सुहाये नैन,
मंजुल प्रसून माथे मुकुट जटनि* के।
अंसनि सरासन लसत, सुचि कर सर,
तून कटि, मुनिपट लूटक-पटनि† के॥
नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै
बिधि बिरचे बरूथ बिद्युत छटनि‡ के।
गोरे को बरन देखे सोनो न सलोनो लागै,
साँवरे बिलोके गर्व घटत घटनि§ के॥

अर्थ―सुन्दर मुख पर कमल से नयन शोभा पा रहे हैं और सिर की जटाओं के ऊपर सुन्दर फूलों के मुकुट हैं। कन्धे पर धनुष शोभायमान है और पवित्र हाथ में बाण और कमर पर तरकस है। मुनियों के से उनके कपड़े अन्य वस्त्रों की शोभा की लूट करनेवाले हैं। साथ में कोमल स्त्री है जिसके शरीर के उबटन से मानो ब्रह्मा ने बिजली की छटाओं के झुण्ड बनाये हैं। गोरे का रूप देखते सोना अच्छा नहीं लगता और साँवरे का रूप देखकर बादलों का घमण्ड भी दूर हो जाता है।

शब्दार्थ―अंसनि = कंधा। लूटक+पदनि = पटनि (वस्त्रों) की लूट+क (करनेवाले) अथवा लुट+कपट+वि कपटों की लूट करनेवाले अर्थात् खानेवाले। वरूथ = झुंड। विद्युत = बिजली। सलोना = नमकीन।



*पाठांतर―जटानि।
†पाठांतर―पटानि।
‡पाठांतर―छटानि।
§पाठांतर―घटानि।