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अयोध्याकाण्ड

[४५]

धरि धीर कहैं "चलु देखिय जाइ जहाँ सजनी रजनी रहि हैं।
कहि है जग पोच, न सोच कछु, फल लोचन आपन तौ लहि हैं॥
सुख पाइ हैं कान सुने बतियाँ, कल आपस में कछु पै कहि हैं"।
तुलसी अति प्रेम लगी पलकैं, पुलकीं लखि राम हिये महि हैं॥

अर्थ―(सब) धीर धरकर कहती थीं कि चलो देखें कि ये रात को कहाँ रहेंगे। यदि संसार बुरा कहेगा तो कुछ शोच नहीं है। हम अपनी आँखों का लाभ तो पा लेंगी। इनकी बातों को सुनकर कानों को सुख होगा। आपस में तो कल कुछ कहेंगे अर्थात् यदि यह हमसे नहीं बोलते तो आपस में जो बातचीत करेंगे उसे ही सुनकर कानों को सुख होगा अथवा कानों को इनकी बात सुनकर सुख होगा और कल यानी भविष्य में कुछ कहने को (वर्णन करने को) तो होगा, ऐसी अद्भुत बातचीत का फिर ज़िकर करते रहेंगे अथवा बातें सुनकर कान कल और सुख पावेंगे अथवा कल (= शांति) भरी बातें सुनकर कान सुख पावेंगे। हे तुलसी! पलकें प्रेम से लग गईं (अर्थात् हिलती न थीं अथवा बंद हो गई) और सब रामचन्द्र को हृदय में देखकर पुलकायमान हुईं।

[ ४६ ]

पद कोमल, स्यामल गौर कलेवर, राजत कोटि मनोज लजाये।
कर बान सरासन, सीस जटा, सरसीसह लोचन सोन सुहाये॥
जिन देखे सखी! सत भायहु तें, तुलसी तिन तौ मन फेरिन*पाये।
यहि मारग आजु किसोर बधू विधुबैनी समेत सुभाय सिधाये॥

अर्थ―पैर कोमल हैं, साँवला गोरा शरीर करोड़ों कामदेवों को लजाकर शोभा पा रहा है। हाथ में धनुष बाण और सिर पर जटा हैं। कमलनयन सोना के से हैं अथवा लाल हैं। हे सखी! जिन्होंने सीधे-सीधे भी देखे हैं उन्होंने मन का ऋण चुका लिया अर्थात् जो कुछ पाना था पा लिया अथवा वे मन फेर न सकीं। इस रास्ते आज कुँवर विधुवैनी स्त्रीसमेत पधारे हैं।


  • पाठान्तर = के रिन।