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कवितावली

[ ४७ ]

मुख पंकज, कंज बिलोचन मंजु, मनोज सरासन सी बनी भौंहैं।
कमनीय कलेवर, कोमल स्यामल गौर किसोर, जटा सिर सोहैं॥
तुलसी कटि तून, धरे धनु बान, अचानक दीठि परी तिरछोहैं।
केहि भाँति कहीं सजनी! तोहिं सों, मृदु मूरति द्वै निबसीं* मनमोहैं॥

अर्थ―कमल सा मुख, कमल से सुंदर नेत्र, सुन्दर भौहें मानो कामदेव के धनुष हैं। सुंदर शरीर है। साँवले गोरे बालक कोमल हैं; किशोर अवस्था है, सिर पर जटा शोभायमान हैं। हे तुलसी! कटि पर तरकस और धनुष बाण लिये हैं। इनकी तिरछी सी दृष्टि अचानक मुझ पर जा पड़ी। हे प्यारी! तुझसे क्या कहूँ, दोनों कोमल मूरतें मन को मोहती हुई बस गईं अथवा मेरे मन में बस गई हैं।

[ ४८ ]

प्रेम सों पीछे तिरीछे प्रियाहि चितै, चितु दै, चले लै चित चोरे।
स्याम सरीर पसेऊ लसै, हुलसै तुलसी छबि सो मन मोरे॥
लोचन लोल, चलैं भृकुटी कल काम-कमानहुँ सों तृन तोरे।
राजत राम कुरंग के संग निषंग कसे, धनु सों सर जोर॥

अर्थ―प्रेम से पीछे की ओर तिरछे नेत्रों से सीताजी को देखकर चित्त (अपना) देकर और सीता का चित्त लेकर चोरे (धीरे से) चले कि मृग भाग न जावे, अथवा चित्त को चुरानेवाले रामचन्द्रजी चले अथवा चित्त देकर चितचोर (मृग) को ले (सन्मुख करके) चले। साँवले शरीर पर पसीना चमकता था। हे तुलसी! मेरा मन वह छवि देखकर प्रसन्न हो गया। चञ्चल नयन हैं और चलायमान सुंदर भौंहैं मानो कामदेव की कमान से तिनका तोड़ती हैं अर्थात् उनको चुनौती देती हैं। रामचन्द्रजी मृग के साथ तरकस लिये और धनुष पर बाण चढ़ाये शोभायमान हैं।

[ ४९ ]

सर चारिक चारु बनाइ कसे कटि, पानि सरासन सायक लै।
बन खेलत राम फिरै मृगया, तुलसी छबि सो बरनै किमि के?॥


*पाठान्तर―निकसीं।