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किष्किन्धाकाण्ड
घनाक्षरी
[ ५२ ]


जब अंगदादिन की मति गति मंद भई,
पवन के पूत को न कूदिबे को पलु गो।
साहसी ह्वै सैल पर सहसा सकेलि* आइ,
चितवत चहूँ ओर, औरन को कलु गो॥
‘तुलसी’ रसातल को निकसि सलिल आयो,
कोल कलमल्यो, अहि कमठ को बलु गो।
चारिह चरन के चपेट चाँपे चिपटि गो,
उचके उचकि चारि अंगुल अचलु गो॥

अर्थ—जब अंगद वगैरह की अक्ल और चाल दोनों थक गई तब भी हनुमानजी को कूदने में पल न लगा (अर्थात् हनुमान उस समय भी झट कूदने को समर्थ हुए)। वह साहस करके जल्दी से खेल ही में पर्वत पर चढ़ गये और चारों ओर देखने लगे। (देखते ही) और सबकी कल (शांति) जाती रही (अर्थात् सब विकल हो उठे कि न जाने क्या होगा; हनुमानजी सन्देशा लेकर लौट भी पावेंगे या नहीं अथवा हनुमानजी के क्रोध को देखकर कमठ आदि सब हिल गये जैसा कि आगे कहते हैं)। हे तुलसी! रसातल का पानी ऊपर आ गया, वराहजी हिल गये, शेषजी और कछुवा की शक्ति हीन हो गई। चारों पैरों की चपेट से दबकर पैरों से चिपट गया और हनुमानजी के उचकने के साथ पर्वत भी चार अंगुल ऊँचा उठ गया।

शब्दार्थ—कोल= वराह। सकेलि= स+केलि= खेल में।

इति किष्किन्धाकाण्ड
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*पाठान्तर—सिकिलि।