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कवितावली

अर्थ―बहुत से लत्ते इकट्ठा करके और तेल में बोर-बोर (डुबा-डुबाकर) राक्षस गली-गली अथवा घर-घर से दौड़े आकर पूँछ में बाँधते हैं। वैसा ही बन्दर भी बड़ा कौतुकी (तमाशा करनेवाला) है। वह (मानो) डरकर ढीला शरीर करता है और लात की मार सहता है और जी में कहता है कि मूर्ख हैं। लड़के खुशी से शोर मचाते हैं और ताली दे देकर गाली देते हैं और पीछे ढोल, निशान और तुरई बजाते जाते हैं। पूँछ बढ़ने लगी, जगह-जगह पर आग लगा दी गई, मानो विन्ध्याचल की दवाग्नि (वन की आग) है या कराड़ी सूर्य निकल आये हैं।

शब्दार्थ―खोरि = घर, गली। लँगूर = पूँछ। तर = तुरई। दवारि = दावानल। सूर = सूर्य्य ।

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लाइ लाइ आगि भागे बाल-जाल जहाँ तहाँ,
लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरु तें बिसाल भो।
कौतुकी कपीस कूदि कनक कँगूरा चढ़ि,
रावन भवन जाइ ठाढ़ो तेहि काल भो॥
तुलसी बिराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,
देखे हहरात भट, काल तें कराल भो।
तेज को निधान मानो कोटिक कृसानु भानु,
नख विकराल, मुख तैसो रिसि लाल भो॥

अर्थ―लड़कों के झुण्ड आग लगा-लगाकर जहाँ-तहाँ भाग गये। हनुमान थोड़ी देर के लिए झुककर छोटा हो गया (और फिर) मेरु पर्वत से भी ऊँचा हो गया। बन्दरों का खिलाड़ी राजा कूदकर सोने के कँगूरे पर चढ़ गया और रावण के महल पर उसी समय जा खड़ा हुआ। हे तुलसी! बन्दर उस समय पूँछ बड़ी लम्बी पसारकर आकाश में ठहरा। उस समय उसे देखकर योधा धबड़ाने लगे। वह काल से भी कठोर, तेज का घर सा उस समय लगता था, मानो करोड़ों अग्नि और सूर्य्य हैं। उसके नख विकराल थे और वैसा ही क्रोध से मुँह लाल था।

शब्दार्थ―निबुर्कि = मुककर।