पृष्ठ:कवितावली.pdf/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४१
सुन्दरकाण्ड


तुलसी बढ़ाय वादि सालतें विसाल बाहैं,
याही बल, बालिसो*! विरोध† रघुनाथ सों!”॥

अर्थ—रावण की राक्षसी रानियाँ रो-रोकर कहने लगीं कि हा-हा कोई बीस बाहुवाले और दस माथेवाले रावण से जाकर कहे। क्यों रे मेघनाद और महोदर! तू भी धैर्य्य नहीं बँधाता, अब हाथ क्यों नहीं पकड़ लेता है। क्यों रे अतिकाय और अकम्पन! अरे अभागे! औरतों को छोड़े जाते हो और आप साथ छोड़कर भागे जाते हो? हे तुलसी! वाद बढ़ाकर (फ़िजूल) बड़ो बाहुओं को सालते (नष्ट कराते) हो, अथवा साल सी बड़ी बाहें व्यर्थ बढ़ाई हैं। इसी बल पर मूर्खो! रामचन्द्र से झगड़ा बढ़ाया है।

शब्दार्थ—बिलखानी= राती हुई। लाइ लेत= पकड़ लेता। बालिसा- मूर्खो, छोकड़ो।

[६६]


हाट, बाट, कोट, ओट, अट्टिनि‡, अगार, पौरि,
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हीं अति आगि है।
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू,
ब्याकुल जहाँ सोँ तहाँ लोग§ चले भागि है॥
बालधी फिरावै, बार वार झहरावै, झरैं
बूँँदिया सी, लंक पधिलाइ पाग पागि है।
तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं,
“चित्र हु के कपि सोँ‖ निसाचर न लागिहै”॥

अर्थ—[हनुमानजी ने] बाज़ार में, रास्ते में, कोट में, शहर-पनाह में, अट्टालिकाओं में, महल में, पौरि में और गली-गली में दौड़-दौड़कर बड़ी आग दे दी है। दुखी होकर सब पुकार रहे हैं और कोई किसी की सँभाल नहीं करता। सब लोग जो जहाँ हैं वे वहीं से व्याकुल होकर भागे जा रहे हैं। पूँछ घुमाता है और बार-बार



* पाठांतर—बालि सों।
†पाठांतर—वैर।
‡पाठान्तर—अटनि।
§पाठान्तर—लोक।
‖पाठान्तर—से।