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कवितावली


उसे झाड़ता है। उसमें से बूँँदी सी (चिनगारियाँ) झरती हैं मानो लङ्का को पिघला-पिघलाकर पाग रहा है, अर्थात् लङ्का को पिघला-पिघलाकर मानो चाशनी बना रहा है जिसमें आग की चिनगारी की बूँँदी पाग रहा है। है तुलसी! राक्षसियाँ घबराकर कह रही हैं कि तसवीर के बन्दर की बराबरी भी राक्षस नहीं कर सकेंगे।

[६७]


‘लागि लागि आगि’,भागि भागि चले जहाँ तहाँ,
धीय को न माय, बाप पूत न सँभारहीं।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम धुंध अंध,
कहैं बारे बुढ़े ‘बारि बारि’ बार बारहीं॥
हर हिहिनात भागे जात, घहरात गज
भारी भीर ठेलि पेलि रौँदि खौंदि डारहीं।
नाम लै चिलात, बिललात, अकुलात अति,
“तात तात! तौंसियत, झौंसियत झारहीं”॥

अर्थ—“आग लगी है, आग लगी है” कहते हुए सब लोग जहाँ-तहाँ भाग चले। माँ बेटी को और बाप बेटे को भी नहीं सँभालता है। बाल विखरे और नङ्गे बदन धुएँ की धुन्ध से अन्धे होकर छोटे-बड़े सब बार-बार पानी-पानी पुकार रहे हैं। घोड़े हिन-हिनाते हैं और भागे जाते हैं और हाथी चिंबाड़कर भारी भीड़ को पेलकर रौंदे डालते हैं। लोग नाम लेकर चिल्ला रहे हैं, व्याकुल हो रहे हैं और अति घबड़ा रहे हैं। हे तात! ताव खाये जाते हैं और अग्नि की लपट से झुलसे जाते हैं अथवा सब झुलसे जाते हैं।

शब्दार्थ—तौंसियत= ताब खाना, तप जाना। झौंसियत= झुलसना। झारहीं= सब, लपट।

[६८]


लपट कराल ज्वाल जाल माल दहूँ दिसि,
धूम अकुलाने पहिचानै कौन काहि रे?।
पानी को ललात, बिललात, जरे गात जात,
परे पाइमाल जात, “भ्रात! तू निबाहि रे॥