पृष्ठ:कवितावली.pdf/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३
सुन्दरकाण्ड


प्रिया तू पराहि, नाथ नाथ! तू पराहि, बाप
बाप! तू पराहि, पूत पूत! तू पराहि रे”।
तुलसी बिलोकि लोक ब्याकुल बिहाल कहैं,
“लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे”॥

अर्थ—अग्रि की ज्वाला बड़ो विकराल है, भयङ्कर लपटें दसों दिशाओं में छा गई हैं, धुआँ छाया है जिससे सब घबड़ा रहे हैं। (ऐसी दशा में) कौन किसको पहिचाने। पानी को तरसते और पानी पानी चिल्ला रहे हैं। सब अङ्ग जले जाते हैं, और दबे जाते हैं भाई! बचाओ। स्त्री पति से कहती है कि भागो, पति स्त्री से, पिता पुत्र से और पुत्र पिता से कहता है कि भागो। तुलसी सब दुनिया को व्याकुल देखकर बेहाल होकर कहते हैं कि रावण को अब बीस आँखों से देखकर बचाना चाहिए। अथवा हे रावण! अब बीसों आँखों से देख ले।

शब्दार्थ—लेहि= लेना, बचाना।

[६६]


बीथिका बजार प्रति, अटनि अगार प्रति,
पँवरि पगार प्रति बानर बिलोकिए।
अध ऊर्द्ध बानर, बिदिसि दिसि बानर है,
मानहु रह्यो है भरि बानर तिलोकिए॥
मृँदे आँखि हीय में, उधारे आँखि आगे ठाढ़ो,
धाइ जाइ जहाँ तहाँ और कोऊ को किए?।
“लेहु अब लेहु, तब कोऊ न सिखाओ मानो,
सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकिए”॥

अर्थ—हर एक गली, बाज़ार, अटा, महल, पौरि, घर, द्वार सबमें बन्दर ही बन्दर दिखाई पड़ता है। नीचे ऊपर दिशा विदिशा सबमें बन्दर ही बन्दर दिखाई पड़ता है मानो तीनों लोक बन्दर ही से भरे हुए हैं। आँख मूँँदने से हृदय में और खोलने से बाहर वह खड़ा दिखाई पड़ता है और जहाँ कोई भागकर जाता है, वहाँ भी दिखाई पड़ता है और कोई क्या करै अथवा किसी के पुकारने पर जहाँ तहाँ भाग जाता है। अथवा जहाँ जाओ वहाँ और किसी को पुकारो, बन्दर ही बन्दर दिखाई देता है।