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सुन्दरकाण्ड


कहैं मालवान “जातुधानपति राघरे को
मनहूँ अकाज आनै ऐसा कौन आज है?॥
राम-कोह पावक, समीर सीय-स्वाँस, कीस
ईस-बामता बिलोकु, वानर को ब्याज है।
जारत प्रचारि फेरि फेरि सो निसंक लंक,
जहाँ बाँको वीर तोसो सूर सिरताज है”॥

अर्थ—मालवान कहते हैं कि हे रावण! पृथ्वी के राजा, नाग (पाताल के रक्षक), स्वर्ग के रक्षक (देवता), लोकपाल और जितने योधागण हैं, उनमें ऐसा जगत् में कौन है जो आपका मन में अथवा मन से भी बुरा (हानि) चाहे अर्थात् कोई नहीं। रामचन्द्र का गुस्सा अग्नि है, सीताजी की श्वास वायु है, ईश्वर का उलटापन बन्दर है, सो खूब देख ले। बंदर का तो बहाना है, यही अग्नि जलाकर फेर-फेरकर निडर होकर उस लङ्का को जला रही है जहाँ तुझसा बाँका वीर राजा है।

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पान, पकवान विधि नाना को ,सँधानो, सीधो,
बिबिध विधान धान बरत बखारहीं।
कनक-किरीट कोटि, पलँग, पेटारे, पीठ
काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं॥
प्रबल अनल बाढ़ै, जहाँ काढ़ै तहाँ डाढ़ै,
झपट लपट भरै भवन भँडारहीं।
तुलसी अगार न पगार न बजार बच्यो,
हाथी हथसार जरे, घोरे घोरसारहीं॥

अर्थ—तरह-तरह की पीने और खाने की चीज़ें, सामान और सीधा, तरह-तरह के धान बखारों में जल रहे हैं। करोड़ों सोने के किरीट, पलँग और पिटारे, और पीढ़े, सब जली हुई चीज़ों के भार के भार भरकर कहार निकाल रहे हैं। भारी अग्नि बढ़ रही है। जहाँ से निकालते हैं वहीं जल रहे हैं। लपट बड़े वेग से