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कवितावली

मकानों में और भंडारों में भरी है। हे तुलसी! महल घर बाजार कुछ न बचा, हाथी हथसार में और घोड़े घुड़सार (अस्तबल) में जल गये।

[७६]


हाट बाट हाटक पघिल चलो घीसो घनो,
कनक-कराहीं लंक तलफति ताय सों*।
नाना पकवान जातुधान बलवान सब,
पागि पागि ढेरि कीन्हीं भली भाँति भाय सों॥
पाहुने कृसानु पवमान† सौँ परोसो,
हनुमान सनमानि कै जेंवाये चित चाय सों।
तुलसी निहारि अरि नारि दै दै गारि कहैं,
“बावरे सुरारि बैर कीन्हों राम राय से”॥

अर्थ—हाट और बाजा़रों में सोना घी सा पिघल चला मानो सोने की लङ्का कड़ाही है और ताव से जल रही है अथवा सोने की कड़ाही में लङ्का ताई जाती है। बली राक्षसगण तरह-तरह के पकवान हैं। उनको मानो अच्छी तरह से पाग-पाग के ढेर किये हैं। अतिथि अग्नि को मानो पवन से आदर करके यह पकवान परोस कर बड़े चाव से हनुमान ने जिंवाया है। हे तुलसी! बैरी की स्त्रियाँ गाली दे-देकर कहती हैं बावले ने रामचन्द्र से वैर किया है।

[७७]


रावन सो राजरोग बाढ़त बिराट उर,
दिन दिन बिकल सकल सुखराँक‡ सो।
नाना उपचार करि हारे सुर सिद्ध मुनि,
होत न बिसोक ओत पावै§ न मनाकसो॥



* पाठान्तर-जायसों।
†पिवमान के स्थान पर पकवान अच्छा पाठ है।
‡रॉक= रंक= भिखारी, मट्टी, क्षीण।
§पाठान्तर= औ तपावै।
॥मनाक= जरा सा भी।