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कवितावली

सुन्दर चूड़ामणि उतार दी। हे प्यारे! तुमसे क्या कहूँ, देखे जाते हो कि दिन कैसे कटते हैं। तुम्हारा बड़ा सहारा था सो उसे भी तुम तोड़ चले। हे तुलसी! आँखो में आँसू भरे और प्रेम से शिथिल वाणी और विकल सीताजी को देखकर हनुमानजी ने उनसे निहोर के कहा।

[ ७९ ]

'"दिवस छ सात जात जानिवे न, मातु धरु
धीर, अरि अंत की अवधि रही थोरि कै।
बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानु-कुल-केतु,
सानुज कुसल कपि-कटक बटोरि कै"॥
बचन बिनीत कहि सीता को प्रबोध करि,
तुलसी त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै।
"जै जै जानकीस दससीस करि केसरी"
कपीस कूद्यो बात घात वारिधि* हलोरि कै॥

अर्थ―छ सात दिन बीतते हुए न जान पड़ेंगे, हे माता! धीर धर, वैरी के अन्त की अवधि अब थोड़ी रह गई है। भाई सहित रामचन्द्रजी और बन्दरों की फौज बटोर के समुद्र पर पुल बाँधकर आवैंगे। नम्र वचन कहकर सीता को इतमीनान कराके हे तुलसी! त्रिकूट पर्वत पर चढ़कर डङ्का की चोट हनुमान ने यह कहा―"जय रामचन्द्र, रावण से हाथी को सिंह रूप जय" यह कहकर हनुमान बात घात अर्थात् हवा के ज़ोर से अथवा बात जात बात के कहने में (बहुत थोड़े समय में) समुद्र हिलोरि के पार कूद गया अथवा बात-जात (हनुमान) कूद गया।

शब्दार्थ―डफोरि कै = डङ्का की चोट, चिल्लाकर। बात धात = हवा के ज़ोर से अथवा बात-जात = पवन पुत्र वा बात जाते हुए अर्थात् बहुत ही थोड़ी देर में, बिना प्रयास।

[ ८० ]

साहसी समीर-सूनु नीरनिधि लंघि, लखि
लंक सिद्धपीठ निसि जागा है मसान सो।


*पाठान्तर―उदधि।