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लङ्काकाण्ड

अर्थ―विनय और प्रीति के साथ सीता त्रिजटा से कहती हैं क्या कुछ समाचार आर्यपुत्र (रामचन्द्र) के तुमचे पायें है? (त्रिजटा ने कहा कि) हाँ पाये हैं कि सेतु बाँधकर रामचन्द्रजी पार पार उत्तर है। (दारुण =) कठिन (दुवन के) दुर्जन के, दारुण-दुवन अर्थात् रावण के, दूत देखि देखि आये है। (उनको) कुम्हलाये मुँह और वलहीन देख देखकर मालूम होता है कि सब भुवनों का राक्षसरूपी अन्धकार मिटा चाहता है, लोकपति (दिग्गजों) रूपी चकवा जो शोक-युक्त है और वन्दररूपी कमल जो अभी बन्द हैं उनको प्रसन्न करने और खोलने को रामचन्द्ररूपी सूर्य्य के उदय होने के केवल दो दण्ड रहे हैं अर्थात् थोड़ी देर बाक़ी है।

झूलना

[ ८८ ]

सुभुज मारीच खर त्रिसिर दूषन बालि
दलत† जेहि दूसरो सर न साँध्यो।
आनि परबाम‡ बिधिवाम तेहि राम सोँ,
सकल संग्राम दसकंध काँध्यो॥
समुझि तुलसीस कपि§, कर्म घर घर घैरु,
बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो।
बसत गढ़ लंक लंकेस नायक अछता‖
लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो॥

अर्थ―सुबाहु, मारीच, खर, त्रिशिरा, दूषण और बालि को मारने में जिसने एक से दूसरा बाण नहीं लगाया; उस राम से रावण ने, जिस पर दूसरे की स्त्री हर लाने से ब्रह्मा भी उलटे हैं, लड़ाई मोल ली है। तुलसी के प्रभु (रामचन्द्रजी) और हनुमान का कर्म समझकर घर घर शोर मच गया है और सब यह सुनकर विकल हैं कि



*पाठान्तर―बली।
†पाठान्तर―बंधन।
‡पाठान्तर―धाम।
§पाठान्तर―कोपि।
‖पाठान्तर―अकृत = न किया हुआ, स्वयं उत्पन्न हुआ अथवा अछत = अक्षत, चिरनीय अथवा देखते हुए, होते हुए।