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लङ्काकाण्ड

अर्थ—अङ्गद के लङ्का में आने पर चारों और शोर मच गया कि वही बन्दर फिर आया। कोई बटोर-बटोर कर असबाब निकालता था। कोई कहता था कि देखैं अब की क्या करेगा। सब योधागण की मति पोच हो गई अर्थात् सब बड़े-बड़े सुभट घबड़ाने लगे। रामचन्द्र की कसन खाकर अङ्गद गरजा, सब राक्षसों ने अपनी- अपनी आँखें मूँँद ली, मानों बज्र टूट पड़ा हो। वे हनुमान की याद कर सहमकर इस भाँति डरे जैसे लवा वाज़ के झपटने पर छिपता है।

शब्दार्थ—सौज= सामग्री। धौंज= कसम, धौज= दौड़ धूप।

[९४]


तुलसी सबल रघुबीर जू के वालिसुत
वाहि न गनत, बात कहत करेरी सी।
बखसीस ईस जू की खीस होत देखियत,
रिस काहे लागत कहत हौं तो तेरी सी॥
चढ़ि गढ़ मढ़ दृढ़ कोट के कँगूरे कोपि,
नेकु धका दैहैं छैहैं ढेलन की ढेरी सी।
सुनु दसमाथ! नाथ-साथ के हमारे कपि
हाथ लंका लाइहैं तो रहैगी हथेरी सी॥

अर्थ—तुलसी कहते हैं कि सबल (बलवान्) रघुवीर (राम) के दूत बालिसुत (अङ्गद) ने वाहि (रावन) को कुछ नहीं गिना और बड़ी कड़ी बात कही कि शिव जी की बकसीस (दी हुई सम्पदा) नाश होते मुझे दिखाई देती है। क्रोध क्यों करते हो? मैं तुम्हारी सी कहता हूँ। बानर, भालु गढ़ पर चढ़कर जब मज़बूत मकानों और कोट के कँगूरों को नेक धक्का देंगे तब वह (गढ़) ढेलन (ईटों) के ढेर से गिर पड़ेंगे। हे रावण! सुन, हमारे बन्दर जो रधुनाथ के साथ हैं जब लङ्का में हाथ लगावेंगे तो हथेली सी साफ़ रह जावेगी, अर्थात् कुछ बाक़ी न रहेगा।

[९५]


दूषन बिराध खर त्रिसर कबंध बधे,
तालऊ बिसाल बेधे, कौतुक है कालि को।