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लङ्काकाण्ड

[ ९७ ]

तू रजनीवरनाथ महा, रघुनाथ के सेवक कर जन हौं हैं।
बलवान है स्वान गली अपनी, तोहिं लाज न* गाल बजावत सोहौं॥
बीस भुजा दसलील हरौं न डरौं प्रभु आयसु भंग ते जी है।
खेत में केहरि ज्यों गजराज दलौं दल वालि को बालक तौ हौं॥

अर्थ―तू राक्षसों का नाथ अर्थात् राजा है परन्तु मैं रामचन्द्र के दास का दास हूँ। अपनी गली में कुत्ता भी बलवान् होता है। तेरे (तुझे) लाज नहीं है। परन्तु (गाल बजाते) फ़िज़ूल बकवाद करते मुझे शोभा नहीं है, अथवा तेरे सामने मुझे गाल बजाते लाज नहीं है क्योंकि जैसे को तैसा चाहिए, अथवा मेरे सामने तुझे बकवाद करते लाज नहीं आती। अभी बीस भुजा और दसों सिर हर लेता, यदि रामचन्द्र की आज्ञाभङ्ग का उर न होता। जैसे खेत (मैदान) में शेर हाथी को नाश करता है वैसे ही यदि दल को नाश न करूँ तो मैं बालि का बेटा नहीं।

[ ९८ ]

कोसलराज के काज हौं आज त्रिकूट उपारि लै बारिधि बोरौं।
महाभुज-दंड द्वै† अंडकटाह चपेट की चोट चटाक दै फोरौं॥
आयसु भंग ते जौ न डरौं सब मींजि सभासद सोनित खोरौं।
बालि को बालक जौ तुलसी दसहू मुख के रन में रद तोरौं।

अर्थ―रामचन्द्र के काम के लिए मैं आज त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर समुद्र में डुबा सकता हूँ। अपने दोनों बाहुओं में ब्रह्माण्ड को दबाकर झट से फोड़ सकता हूँ। सब सभासदों को मींजकर लोहू से स्नान करा सकता हूँ यदि रामजी की आज्ञा के टूटने से न डरूँ। हे तुलसी! मैं तब बालि का पुत्र कहाऊँ जब लड़ाई में दसो मुँह के दाँत तोड़ूँ।

सवैया

[ ९९ ]

अति कोष सौ रोप्यो है पाँव सभा, सब लंक ससंकित सोर मचा।
तमके घननाद से बीर पचारि कै, हारि निशाचर सैन पचा॥



*पाठान्तर―है बलवान गली निज श्वान न लाजन।
†पाठान्तर―द्वै भुजदण्ड से।