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कवितावली


न टरै पग मेरुहु ते गरु भो, सा मनों महि संग बिरंचि रचा।
तुलसी सब सृर सराहत हैं “जग में बलसालि है बालिबचा”।

अर्थ—बड़े क्रोध से सभा में पैर रोपा, सब लङ्का में डर से शोर मच गया, मेघनाद से योधा बड़े वेग से उठे, और कुल निशाचर-सेना प्रचार के (कोशिश करके) हार गई अथवा मेघनाद से वीर गुस्से में होकर उठे मगर पैर मेरु से भी भारी हो गया, उठाये नहीं उठता, मानो ब्रह्मा ने पृथ्वी के सङ्ग बनाया है अर्थात् पृथ्वी का एक भाग हैं उससे अलग हो ही नहीं सकता। हे तुलसी! सब वीर अङ्गद की प्रशंसा करने लगे कि ज़ग में बालि का बेटा बड़ा वीर है।

घनाक्षरी
[१००]


रोप्यौ पाँव पैज कै बिचारि रघुवीरबल,
लागे भट सिमिटि न नेकु टसकतु है।
तज्यौ धीर धरनि, धरनिधर धसकत,
धराधर धीर भार सहि न सकतु है॥
महाबली बालि को दबत दलकतु भूमि,
तुलसी उछरि सिंधु मेरु मसकतु है।
कमठ कठिन पीठि, घठा परो मंदर को,
आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है॥

अर्थ—अङ्गद ने रामचन्द्र के बल को विचारकर, प्रण करके, पैर को रक्खा, जिसे बड़े बड़े बली मिल-मिलकर उठाने लगे परन्तु वह ज़रा नहीं हिला। पृथ्वी ने भी धैर्य्य छोड़ दिया, सुमेरु धसकने लगा और धीर शेषनाग भी भार न सह सके। बलवान् अङ्गद के दबाने से पृथ्वी पसीज गई। हे तुलसी! माना मेरु के मसकने (दवाने) से सिन्धु उछलने लगा अथवा मेरु मसक (फट) गया। कच्छप की पीठ पर मन्दर (पर्वत) का जो घट्ठा पड़ा था वह तो काम आया, परन्तु कलेजा कसकता है।