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लङ्काकाण्ड
झूलना
[१०१]


कनक गिरि सृंग चढ़ि देखि मर्कट कटक,
बदत मंदोदरी परम भीता।
“सहसभुज मत्त-गजराज-रनकेसरी
परसुधर-गर्व जेहि देखि बीता॥
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी
ख्याल ही बालि बलसालि जीता।
रे कंत! तृन दंत गहि सरन श्रीराम कहि,
अजहुँ यहि भाँति लै सौंपु सीता॥”

अर्थ—तुलसीदास कहते हैं कि सोने के पहाड़ की चोटी पर चढ़कर और बन्दरों की सेना को देखकर बहुत डरी हुई मन्दोदरी कहने लगी कि सहस्रबाहु से मस्त हाथो के लिए सिंह के समान परशुराम का ग़रूर जिसे देखकर जाता रहा, लड़ाई में बलवान् जिन कोसल के प्रभु ने ख्याल ही में (बात की बात में) बली बालि को जीत लिया, हे कन्त! तिनका दाँतों में पकड़कर ऐसे श्रीरामचन्द्र की शरण लो और सीता को सौंप दो। (दाँतों में तिनका दबाने से अर्थ शरण लेने से है।)

[१०२]


“रे नीच! मारीच बिचलाइ, हति ताड़का,
भंजि सिवचाप सुख सबहि दीन्ह्यो।
सहस-दसचारि खल सहित खरदूषनहि,
पठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यो॥
मैं जु कहौं कंत! सुनु, संत* भगवंत सों
बिमुख ह्वै बालि फल कौन लीन्ह्यो?
बीस भुज सीस दस खीसि गये तबहिं
जब ईस के ईस सों बैर कीन्ह्यो॥”


* पाठान्तर—मंत= मंत्र, सलाह।