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कवितावली

अर्थ―हे नीच! जिसने मारीच को विकल करके, ताड़का को नारकर, शिव के धनुष को तोड़कर सबको सुख दिया; खरदूषण के साथ १४ सहस्र राक्षसों को मार डाला; उसे तूने तब भी न जाना। मैं जो कहती हूँ उसे सुन, संत और भगवान् से लड़कर बालि ने कौन फल पाया? तेरे बीस भुजाओं सहित दसों शिर तभी नष्ट हो गये जब तूने महादेव के प्रभु (रामचन्द्र) से वैर किया।

[ १०३ ]

"बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किय,
कंत! भगवंत तैं तउ* न चीन्हें।
बिपुल बिकराल भटभालु कपि काल से
संग तरु तुंग गिरिसृंग लीन्हें॥
आइगे कोसलाधीस तुलसीस जेहि
छत्र मिसि मौलि† दस दरि कीन्हें।
ईस-बकसीस जनि खीस करु, ईस! सुनु,
अजहुँ कुल कुसल बैदेहि दीन्हें॥"

अर्थ―हे कन्त! बालि को मारकर जब कल ही पत्थरों को नौका (सेतु) बना दिया तब भी तूने भगवान् को न पहचाना। बड़े विकराल वीर बन्दर और भालू उनके सङ्ग हैं जो काल के समान हैं और बड़े वृक्ष और पहाड़ों के श्रृङ्ग लिये हैं। तुलसी के प्रभु रामचन्द्र आ गये जिन पर महादेव का छत्र है जिनके लिए तुमने दस सिर दूर किये (अर्थात् जिन महादेव पर तुमने अपने सिर चढ़ा दिये थे वही रामचन्द्र पर छत्र किये हैं), अथवा जिन्होंने छत्र के बहाने दस सिरों को गिराया था। हे कन्त! महादेव के दिये हुए वर के बल पर मत हँसी कर अथवा महादेव की दी लङ्का को मत नाश कर, सुन अब भी सीताजी के देने से कुल की कुशल है।

शब्दार्थ―दश मलि = दश शिर।

[१०४ ]

"सैन के कपिन कों को गनै अर्बुदै,
महाबल-बीर हनुमान जानी।



*पाठान्तर―तब।
†पाठान्तर–शशिमौलि = महादेव।