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लङ्काकाण्ड


बालि बलसालि को, सो काल्हि दाप दलि, कोपि
रोप्यो पाँउ, चपरि चमू को चाउ चाहिगो॥
साई रघुनाथ कपि साथ पाथनाथ वाँधि,
आये* नाथ! भागे तें खिरिरि† खेह खाहिगो”।
तुलसी “गरव तजि मिलिबे को साज सजि,
देहि सीय न तो पिय! पाइमाल जाहिगो॥”

अर्थ—रामचन्द्र के बली दूत पवनसुत हनुमान् को देखा जो लङ्का से बड़े गढ़ को धक्कों से ढकेलि के गिरा गया। बालि का पुत्र जो बली है उसने कल तुम्हारे घमण्ड को दबाकर क्रोध से पैर रोपा। तुम्हारी सब सेना का चाव भाग गया। वही रघुनाथ बन्दरों के साथ समुद्र बाँधकर आये हैं। हे नाथ! भागने से घसिट-घसिटकर मट्टी खानी होगी। तुलसीदास कहते हैं कि घमण्ड छोड़ मिलने का सामान करो, सीता को दो, नहीं तो हे पिय पायमाल (नष्ट) हो जाओगे।

शब्दार्थ—खेह= राख, मिट्टी। खिरिर= घसिट घसिटकर। पाइभाल= पाँयमाल, पैर से मला, नष्ट।

[१०८]


“उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार,
केसरीकुमार सो अदंड कैसो डाँड़िगो।
बाटिका उजारि अच्छ रच्छकनि मारि, भट
भारी भारी रावरे के चाउर से काँडिगो॥
तुलसी तिहारे बिद्यमान जुवराज आजु
कोपि, पाँव रोपि बस कै छोहाइ छाँडिगो।
कहे की न लाज, पिय! अजहूँ न आये बाज,
सहित समाज गढ़ राँड़ कैसा भाँडिगो॥”

अर्थ—जिसे अपार समुद्र के पार उतरते देरी नहीं लगी, वह अदंड (जिसे कोई दंड नहीं दे सका) पवनसुत सबको कैसा दण्ड दे गया। अथवा



*पाठान्तर— आयो।
†पाठान्तर—खिरि