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कवितावली


वह पवनसुत तुमसे अदण्ड को भी कैसा डाँडि गया। फुलवारी को उजाड़-कर, अक्ष और बाग़ के रक्षकों को मारकर जो तुम्हारे बड़े भारी-भारी योधा थे उन्हें चावल की भाँति काँड़ि गया (छिलका उतार गया, कूट गया)। तुलसीदास कहते हैं कि तुम्हारे होते हुए भी अङ्गद ने आज क्रोध करके पाँव रोपा और सबको छुँछा करके छोड़ गया अथवा वश में करके रहम से छोड़ गया अथवा तुम्हें अपने पैर छुलाकर छोड़ गया। कहने की तुम्हें कुछ शर्म नहीं है, अब भी तुम बाज नहीं आते हो। सब समाज सहित लङ्का राँड़ के भण्डार की सी लुट गई, अर्थात् ऐसी लुटी मानों उसकी रखवाल राँड़ (असहाय बलहीन स्त्री) थी अथवा विधवा के गढ़ की तरह धूमधूमकर देख गया।

[१०९]


“जाके रोष दुसह त्रिदोष दाह दूरि कीन्हें,
पैयत न छत्री-खोज खोजत खलक में।
महिषमती को नाथ*, साहसी सहसबाहु,
समर समर्थ, नाथ! हेरिए† हलक में॥
सहित समाज महाराज सो जहाज राज
बूड़ि गयो जाके बलबारिधि-छलक में।
टूटत पिनाक के मनाक वाम राम से, ते
नाक बिनु भये भृगुनायक पलक में॥”

अर्थ—जिसके असह्य क्रोध ने त्रिदोष के दाह को भी दूर (मात) कर दिया था कि जिससे संसार में क्षत्रियों का खोज ही नहीं मिलता था, माहिषमती का राजा, साहसी सहस्रबाहु, जिसकी रण में सामर्थ्य को, हे नाथ! हलक में (मन में) सोचिए अर्थात् जिसका बल आप खूब जानते हैं, हे महाराज! समाज के साथ वह सहस्र- बाहुरूपी जहाज़ जिसके बल रूपी समुद्र की छलक में डूब गया (अर्थात जिसने ऐसे बली को भी नष्ट कर दिया था), सो परशुराम धनुष के टूटने से राम से कुछ टेढ़े होने पर पलक में (क्षण भर में) बिना नाक के हो गये अर्थात् उनकी सब शेखी जाती रही।



*पाठान्तर—नाह।
†पाठान्तर—हरषे।