पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/११

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कविबचनसुधा।

भूति नहीं मलयागिरि सोमित चन्द नहीं यह उद्दित भाल है ॥
लीक नहीं मकतूल को पुञ्ज है ध्यान नहीं बिन लाल बेहाल है।
काम महीप संभारि के बैधिये शम्भु नहीं यह कोमल बाल है ३७
सीसी गुलाबके नावत सीस लगावत चन्दन घोरि कै गातन ।
तापर बैठी अटा पर जाइ के चादनी फैलि रही हिमि रातन ।।
डालत हैं कासारी समीर उसीर के नीर के चीर है मातन ।
बर्फ के बुन्द परै तन पै पै तऊ बिरहानल आगि बुझात न ३८

कवित्त।

मीन से बिठूलता कठोर है सुकच्छप से हिये घाव करै को
बराह से उदार है । बिरह बिदारिबे को प्रबल नृसिंह जू से बावन से छली दोऊ तनमन हार हैं ॥ द्विज से अनीत अरु बीर रघुबीर ऐसे कृष्ण से दयाल सुखदेव या विचार हैं । मौनता ते बोध
काम-भरे ते कलकी कहे प्यारीके पयोधर कै दसौ अवतार है ३६

सवैया।

रूप अनूप बनी सखियां जु सुता बृखभान की पान सी भूपर ।
पूरण भाग महा अनुराग से वारौं कहा इन मोहनी जू पर ।।
रीझि रँग्यो अचरा कुसुमी सुभ बोलत बात लगे कुच दूपर ।
लाल ध्वना मकरध्वज की फहरात मनो गजकुम्भन ऊपर ४०
पौढ़ी हुती पलका पर बाल खुल्यो अचरा नहिं जानत कोऊ ।
ऊचे उरोज की कचुकी ऊपर लाल लसे चरिचा ढिग सोऊ ।।
सो छबि मोहन देखि छक्यो कवि ताप कहै उपमा लखि ओऊ।
मानो मढे मुलतानी बनात सों मैन महीप के गुम्मन दोऊ ४१