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कविवचनसुधा।

कवित्त ।

गरद गुलाल मुख मण्डित ललित दृग कज्जल कलित मुकुलित प्राणप्यारी के । ईश कवि सोहै अंग बसन सुरंग रंग संग बालबृन्द वृषभानु की कुमारी के ॥ कहत अभीर हौ अभीर बलबीर जू से पार रंग धार तट कंचुकी किनारी के । कंचन के जालेदार बाले कर टार यार चूमि ले कपोल गोल २ मदवारी के ॥ ९६ ॥

अंजन दै नैन बान नागर समारे कर भृकुटी कमान स्वार पनच चढ़े लीनै । ईश कवि सोरह सिगार तुंग पैदर के द्वादश हूं भूषण सवारि चित्त दै लीनै ॥ कंचुकी पताका सारी नील को निशान करि दीने दाह नूपुर नगारे अलबेली ने । पीतम के सङ्ग रति जङ्ग जीतिवे के काज येते दल साने आज अबला अकेली नै ॥ ९७ ॥

सङ्ग नन्दलाल के बिसाल रस रास कीन्हें होती थीं निहान्न सो तो अलख लखावैगी। गरे भुन माल उर उर सो रसाल लायो तामें गनपाल कसे सेल्ही लटकावैगी ॥ नाम रूपलाल गुन गनै कुलजाल तजि जीहैं तौन कौन सोहस्मि रट लावैं गी। ऊधो जू कृपाल भला है करि दयाल माखौ नियत ग्वसम । कैसै भसम रमावैगी ॥ ९८॥

सवैया।

दनिदयाल कृपाल हमैं शरणागत राखिये नित्त नहीं।

मोहिं किंकर आपन जानि सदा गिरजापति लाज मामि रही ।। ३