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कविबचनसुधा।


गनिये नहि दोष कृपा करिये केहि के ढिग जाय कलेस कहीं। आधीन कहै तुमते को बड़ो जेहि के दरबार में जाय रहौ ९९||

कुण्डलिया ।

दीनबन्धु करुणायतन कृपानन्द सुखरासि ।

त्राहि २ राखिय शरण काटि सकल जग फांसि ॥

काटि सकल जगफासि मोह क्रोधादि वृन्द जे ।

राखिय शरण उदार नाथ अब बिलम न कीजे ॥

दीजे भक्ति रसाल आपको सुयश हो बन्दी ।

नासि सकल दुखरासि शम्भु को बाहन नन्दी ॥ १०० ।।

मनहरण।

प्रौढरढरन अशरण के शरण हार प्रारतिहरण चरण चित लाइये । दीनन अधार प्रभु ज्ञान गुनपार राखो सरस उदार पतितन गति-दाइये ॥ बारक चढ़ाय जलबुन्द सिर नाय द्विजराज सुख पाय पाहि याहि सिर नाइये। शंकर दयाल चन्द्र माल है कृपाल दीजै भक्ति सो रसाल तकि शरण सिधाइये ॥१॥

कूबरी की यारी को न सोच हमैं मारी ऊधो एकै अफसोस सांवरे की निठुरान को । योग जो लै आयो सो हमारे सिर आंखन पै राखन को ठौर तन तनको न आन को॥ अङ्ग अङ्ग ब्रती हे वियोग ब्रजचन्द जू के औध हिए ध्यान वा रसीली मुसकान को। आँखै असुभान को करेजन में बान को जुबान गुनगान को औ कान बंसीतान को ॥२॥