पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/३७

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कविवचनसुधा।

बाढ़त जात व्यथा अधिकी निसिबासर को बिरहानल घटै।। मोहिं देखाव लला मुखचन्द सु प्रेमसखी इतनो यश लटे । लालन देखत जौ मरिजाउं तो मैं कलिजाउ महादुख छूटै ॥४४॥ प्रेम पयोधि परेउ गहिरे अभिमान को फेनु कहा गहि रे मन । कोप तरङ्गनि सो वहिरे पछिताय पुकारत क्यों बहि रे मन ।। देव जू लाज लिहाज ते कूटि रह्यो मुख मंदि अजौ रहिरे मन । जोरत तोरत प्रीति तुहीं अब तेरो अनीति तुहीं सहिरे मन ।। मोहन को मन मोहन को बप्ति ले पद पंकज मौन मझारो। त्यों गनपाल न चाउ हिये विष लेत सुधा हरि छ्वै करि डारो॥ येकौ चलेगी न तेरी अली सब रहैं धरी उर माहिं हजारो । ठाठ परो सब योंही रहगो चलैगा जबै कढि प्रान वजारो॥ मङ्गल के पद जानो नहीं तुम जंगलबासी बड़े खल खाली । रागे न रङ्ग उमङ्ग भरे सुक पाले न जू पिंजरान की जाली ।। पाके अनार के बीजन के रस छाके नही यह कौन खुसाली । खात कहा खटनामुनि के फल कोचकी होत है चोच की लाली ॥ दृगलाल बिसाल उनीदे कळू गरबीले लजीले सु पेखहिंगे । कब धों सुथरी विथुरी अलकें झपकी पलकें अबरेखहिंगे ।। कवि शम्भु सुधारत भूषण वेस निहारि नयो जग लेखहिंगे । अगिरात उठी रतिमन्दिर से कब मोरहिं भामिनि देखहिंगे ।

कबित्त।

करम करम कर पति सों मिलाप भयो आनन्द उमङ्ग इत उर न समाति है । सुक्ख महादुक्ख मेहि दीजिये न भूलि नाथ