पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४
कविवचनसुधा।

सब मांति हमैं बदनाम करो कहि कोटिन कोटि कुदांव करो ॥ जीवन को फल पाय चुकीं अब लाख उपाव करो। हम सोक्त हैं पिय अंक निसंक चवायनै प्राओ चवाव करो ॥

नेह लगाय लुभाय लई पहिले ब्रज की सबही सुकुमारियां । बेनु बजाय बुलाय रमाय हँसाय खिलाय करी मनुहारियां ॥ सो हरिचन्द जुदा कै बसे बधि है छल सों ब्रजबाल विचारियां। बाह जू प्रेम निबाह्यो भलो बलिहारियां मोहन वे बलिहारियां ॥

संसार असार निसारन है रहती हमेस मय मरने की । अहशान वही साहब निदान लाजिम हारबार सँभरने की ।। नर आसन में तू परा है कस अप्त समय नहीं बन परने की। अब मकर न कर कर निकर यही कैलासपती पग धरने की। मोहिं किये बस मोह महा मदमत्त गयन्द गुमानउ हारै । क्रोध बली बलवन्त बडो जब आवत अङ्ग अभङ्ग कै डोरै ॥ थिरता न लहै चित बृत्ति जबै घाटेका जो अनङ्ग तरङ्गन मारे । साहबदीन जो लोभ जग तो बिना करुणानिधि कौन सम्हारै ।। डोरू डिमक डिमक बाजै कर ठाढ़ा ही बैल तड़कत है । सीस जटा जहँ गङ्ग बहै वाके पांय पदुम्म झलकत है ।। डारे बिछौना बघम्बर के कर ऊपर ब्याल लहक्कत है । लखि आई सखी तेरे शङ्कर को हिय मांहि हमारे खटक्कत है ॥

दोहा।

कलियुग केशव नाम से सुफल होत सब काम । अन्तकाल यम से छुटत विहरत गोकुल धाम ॥ ८० ॥