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कविवचनसुधा।


येरी मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखिन तें कढ़िगो अबीर पै अहीर तो कड़े नहीं ॥ २३ ॥

सवैया।

वा निरमोहनि रूप की राशि जो ऊपर के उर आनत हहै । बारहिं बार बिलोकि घरी घरी सूरति तो पहिचानत हहै ॥ ठाकुर या मन की परतीति है जो पै समेह न मानति हहै । आवत है नित मेरे लिये इतना तो विशेषहुँ जानति हहै ॥२४॥

अब का समुझावती को समुझे बदनामी के बीज ता बो चुकीरी । तब वो इतनो न बिचार कियो यह जाल परे कहौ को चुकी री॥ कबि ठाकुर या रस रीति रँगे सब मांति पतिव्रत खो चुकी री। अरी नेकी बदी जो बदी हुती माल में होनी हुती मु तो हो चुकी री

जिय सूधे चितौनि की साधे रही सदा बातन में अनखाय रहे । हँसि कै हरिचन्द न बोले कबौ दृग दूरिहीं से ललचाय रहे ॥ नहिं नेक दया उर श्रावत है करि के कहा ऐसे सुभाय रहे । सुखकौन सो प्यार दियो पहिले जेहि के बदले यों सताय रहे ॥

छोड़ि के प्रीति प्रतीति लला इन बातन सो मति बान से हूलियो । मांगत है इतनो तुमसो हमरे हिय पालन में नित झूलियो । जोरि के हाथ कहै हरिचन्द हमारी यहै विनती सो कबूलियो । आवो न आवो मिलौ न मिलौ पै हमै अपने चित सों मति भूलियो

द्वारेही श्राइ कडै कबहूं कबहूं मृदु गाय कळे पिछवारे । बेनी पितम्बर की कछमी कबहूं सिर ऊपर मौर सँवारे ॥ एक उपाय अनेक केला नँदनन्दन चाहत चित्त हमारे