पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७
कविबचनसुधा।

मेरो कहो जो सुधाकर सों तो सुधाकर क्यों न निहार करो ।।

चंदन पंख के नीर उसीर को सेज बिछाइ मरोरी । तूल भयो तन जात जरो बैरी दुकूल उतार घरो री॥ देव न सीरे सबै उपचार यही में तुसार को भार भरो री । लाज के ऊपर गाज परै ब्रजराज मिलै सोइ आज करोरी ॥

जान पखौवन की सुधि हेत मयूरन देती भगाय भगाय । मने के दियो पियरे पहिराउ सुमांव में प्यादे लगाय लगाय ॥ भुलावति वाकै हिये ते हरी सुकथान में दासी पगाय पगाय । कहा कहिये यह पापी पपीहा व्यथा हिय देत जगाय जगाय ॥

वासुरी छोरि के सारेंगी लेकर नारंगी पति पटै रँगवायो । मोर को मौर बिहाय गदाधर छोरि लटै नट वेष बनायो । गावत राग बिराग भरे अलि फेरि कै मेरे दुवार लौ आयो । येती करी मोहिं देखिबे काज अभागी मैं कान्ह हिये न लगायो ।।

कवित्त।

राजपौरिया के वेष राधे को बुलाय लाई गोपी मथुरा ते मधुबन की लतान में । कही तिन आय तुम्है राजा कस चाहत हैं कौन के कहे ते यहां लूटो दधि दान में॥ सङ्ग के सकाने गये डगर डराने हिये श्याम सकुचाने सो पकरि कियो पानि में ।

छूटि गयो छल वा छवीली को बिलोकन में ढीली मई मौहै वा लनीली मुसकान में ।।४२।।

सवैया ।

छितिपालन के दरबारन में अपकारी अपार आभगे मिले ।