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कविवचनसुधा।

कवित्त पावस ।

कंचन के खम्भ तामे डोलत ललित डांड़ी डारे मखतूल तूल मणिन खटोलना । सूही सारी सोहे सिर सुन्दरी नवोढ़न के गावती मला वारै कोकिल को बोलना ॥ जेवर जड़ाऊ ज्योति अङ्गन में डगमग कहै शिवनाथ कबि जाको कछु मोल ना । झाक झकि झूलन झुलावती चपलनैनी सावन में श्यामा श्याम झूलत हिंडोलना ॥१॥

सवैया।

चूनरी चोखी चुईसी परै रगचीर जरीन के पैन्हि उजेरे । गावै मलारन को चित चाय चलाय चितौनि के घाय घनेरे ॥ बैठी हिंडोरे कहै गुरदीन बिलोकि के के न मये चित रे । झूलती झूलन हारी अजौ जिय में हिय में अँखियान में मेरे ॥

कबित्त ।

लागे अब घावन धुकारै दै दै बारिधर चावन समेत कीन्हों छावन सरग है। छूट जलधारै तैसे चातृक पुकारे लागी बिरह दवारै लियो कानन को मग है ॥ ससकि सलोनो कहै नैन जल पूरि पूरि शिवनाथ श्याम बिन सूनो सब जग है। प्यारे मन भावन की सावन के प्रावन की औधि भई पावन की बावन को पग है ॥ ३॥

कजल कलित तन पलित बलित भीम तड़ित ललित हेमहारे सुभ पथ के । गरीन तरनि बरसत जलमध्य भूमि भूधरन