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कविबचनसुधा।

सवैया ।

ध्यान मै ब्रह्म लब ते लखै मय मानि हिये भवसिन्धु गंभीर को। मोहिं न आवत नाक नचाय कै रोकियो छोडिबो प्राण समीर को ।। कानन में मकराकृत कुण्डल खेलनहार कलिन्दी के तीर को । भावत मोहि वहै हिय में नन्दगाँव को छोहरो नन्द अहीर को।

आन न शम्भु लख्यो परिहै परिहै कहुँ दीठि जो सांवरो आनन । मान न बावरी लोग लगेंगे जगैगे अली उपहास अमानन ॥ प्रानन को तनि दैहै अरी करिहै पुनि केसढू खान न पान न । कानन २ ही फिरिहै जो कहूं मुरली-धुनि लागिहै कानन ॥१३॥

लाम के लेप लगाय थके औ थके सब सीखि के मंत्र सुनाय के। गारुडी हैकै थके सब लोग थके सब बासुकी सोहैं देवाय कै ॥ ऊधो सो कौन कहै रसखानि जो कानि न मानत येतो उपाय कै। कारे बिसारे को चाहै उतारो अरे विष बावरे राख लगाय के ॥

जात नहीं महिमा रघुनाथ जो सेवरै मानै न देवधुनी को। मोल घटै नहिं पांवरे पाय के जो कोऊ देति है फेंकि चुनी को ।। मैली परै महिमा न कछू जो हँसै कोऊ पातकी देखि मुनी को । ठाकुर कूर करै जो निरादर तो नहिं लागत दोष गुनी को ।।

पण्डित पण्डित सों गुनमाण्डत सायर सायर सों सुख माने । सन्तहिं सन्त भलन्त भले गुनवन्तन को गनवन्त बखाने । मूर को सूर सती को सती कहि दास यती को यती पहिचान । जाकर जासन हेत नहीं कहिये सो कहा त्यहि की गति जाने ।। हाहा करौ विनती परि पांय गहौ जनि मेरो दुकूल दुवार मे ।