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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१३०

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शोभा रहती है कि वायु के सार अग मे सुगंध फैली रहती है अर्थात् इस ऋतु मे सुगधित वायु बहा करती है।

उसी प्रकार---

गणिका अधिक असमसर अर्थात् कामवती होती है और लोक मर्यादा तथा लज्जा को मेटने मे बडी निपुण दिखलाई पडती है। वह अपनी लतारूपी बाहुओ के द्वारा बूढे, जवान, बालक तथा धूर्त सभी के हृदयो मे उमग पूर्वक लपटती है। जब मधुप (शराबी) लोग उसके ओठो के मधु को पीते है तब उसे रुचिकर प्रतीत होता है। और वह कोयल जैसी बोली वाली तथा सुख की सागर ही होती है। उसके शरीर की गति सदा यही रहती है कि उससे सुगन्ध निकलती रहे।