पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२०५)

शखासुर को मारा जिससे 'कैटभ' राक्षस के शरीर को खंडित करके देवताओ के समूह को निष्कटक बनाया। जिससे खर, दूषण, त्रिशिरा और कबन्ध राक्षसो को नष्ट किया और सातो ताल वृक्षो को काट गिराया जिसके बल मैने कुम्भकर्ण को मारा, उसी वाण से रावण के दशो शिरो को काट गिराऊँगा इसकी मै प्रतिज्ञा करता हूँ। इससे मै पल भर को भी न डिगूगा।

[इस उक्ति को श्रीरागचन्द्र जी ने श्रीलक्ष्मण जी को हतोत्साह होते देख कहा था। उत्साहित करने के कारण इसका स्थायी भाव उत्साह है अत वीर रस से पुष्ट वीर रसवत हुआ ]

रौद्र रसवत

उदाहरण

छप्पय

करि आदित्य अदृष्ट नष्ट यम करौ अष्ट वसु।
रुद्रनि बोरि समुद्र करों गन्धर्व सर्व पसु॥
बलित अबेर कुबेर बलिहि गहि देउँ इन्द्र अब।
विद्याधरनि अविद्य करो बिन सिद्धि सिद्ध सब॥
लैकरो दासिदिति की अदिति अनिल अनल मिलिजाहि जब।
सुनि सूरज सूरज उगतही, करों असुर संसार सब॥५६॥

[यह श्रीरामचन्द्र जी की उक्ति है। जिस समय श्रीलक्ष्मण जी के शक्ति लगी थी और वह अचेत पड़े हुए थे, उस समय वह बहुत व्यग्र हो रहे थे कि कहीं सूर्योदय न हो जाय और श्रीलक्ष्मण जी की औषधि न हो सके, क्योकि ऐसा ही बतलाया गया था कि सूर्योदय पर औषधि का कोई प्रभाव न रहेगा। उन्हे देवताओ पर क्रोध आ गया कि मै तो इनके हित के लिए ही रावण से युद्ध कर रहा हूँ और ये