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२---अयुक्त अर्थान्तर न्यास

दोहा

जैसो जहाँ न बूझिये, तैसो तहाँ जु हो।
केशवदास आयुक्त कहि, बरणत है सब कोय॥७०॥

जहाँ जैसा वर्णन न करना चाहिए, वहाँ वैसा ही वर्णन किया जाय तब 'केशवदास' कहते है कि उसको सब लोग अयुक्त अर्थान्तर न्यास कहकर वर्णन करते है।

उदाहरण

कवित्त

'केशवदास' होत मारसिरी पै सुमार सी री,
आरसी लै देखि देह ऐसिये है रावरी।
अमल बतासे ऐसे ललित कपोल तेरे,
अधर तमोल धरे दृग तिल चावरी।
येही छबि छकि जात, छन मे छबीले छैल,
लोचन गॅवार छीनि लै है, इत आवरी।
बार-बार बरजति, बार-बार जातिकत,
मैले बार बारों, अनिवारी है तू बावरी॥७१॥

(केशवदास किसी सखी की ओर से उसकी सखी से कहते है कि) हे सखो! तेरी शोभा से, कामदेव पर मानो मार सी पड़ रही है अर्थात् उसकी शोभा तेरी शोभा के आगे मन्द जान पड़ती है तनिक दर्पण लेकर देख! तेरी छवि ऐसी ही है तेरे बतासे जैसे सुन्दर कपोल है, ओठो पर तेरे पान है और आँखे तिल चावरी (सफेद और काले तिल) की भॉति काली और श्वेत है। तेरी इस शोभा से ही तो छबीले छैल क्षण भर मे छक जाया करते है। गॅवारो के नेत्र, तेरी इस शोभा को छीन लेगे (नजर लग जायगी), इसलिए तू इधर