पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९३

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'केशौदास' सबिलास गीत रंग रंगनि,
कुरंग अगनानि हू के अंगनानि गाइये।
सीता जी की नयन-निकाई हम ही में हैसु,
झूठी है नलिन, खजरीट हू में पाइये॥२८॥

श्री सीताजी के नेत्रों की शोभा हम ही में है यह अभिमान मछलियो के मन मे रहता है, सो मैं सब रहस्य जानती हूँ कैसे न बतलाऊँ। उधर कामदेव के बाणो को भी इस बात का बड़ा अभिमान हो गया है, सो कैसे बतलाया जाय। 'केशवदास' (सखी की ओर से) कहते है कि उधर हिरणियो के (नेत्रो की शोभा के) गीत भी अनेक प्रकार से आंगन-आंगन अर्थात् घर-घर मे गाये जाते है। सब लोग जो यह धारणा बनाये हुये हैं कि 'श्री सीताजी के नेत्रो की शोभा हमहीं में है' सो झूठ है। वैसी शोभा तो कमलो और खजनो में भी पाई जाती है।

१३---श्लेषोपमा

दोहा

जहाँ स्वरूप प्रयोगिये, शब्द एकही अर्थ।
केशव तासों कहत है, श्लेषोपमा समर्थ॥२९॥

'केशवदास' कहते है कि जहाँ ऐसे शब्दो का प्रयोग किया जाय जो उपमेय और उपमान में समान अर्थ में लग सके, वहा उसे समर्थ लोग (विद्वान) श्लेषोपमा कहते है।

उदाहरण

कवित्त

सगुन, सरस, सब अंग राग रंजित है,
सुनहु सुभाग बड़े भाग बाग पाइये।