सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२७८)

होय जो कमल तो रमनि में सकुचै री,
चन्द जो तो बासर न होय दुति मंदरी।
बासर ही कमल, रजनि ही में चन्द, मुख,
बासरहू रजनि बिराजै जग बन्दरी।
देखत मुख भावै, अनदेखेई कमल चन्द,
ताते मुख मुख, सखि कमल न चन्दरी॥३६॥

हे सखी! कोई तो सीताजी के मुख को स्वच्छ कमल जैसा कहता है और कोई उसे आनन्द के कद चन्द्रमा जैसा कहता है। यदि वह कमल जैसा होता तो रात मे संकुचित क्यो न होता? और यदि चन्द्रमा सदृश होता तो दिन मे उसकी आभा मंद न होती? कमल तो दिन ही में खिलता है, चन्द्रमा रात में ही सुशोभित होता है। और यह जगत वन्दनीय सीताजी का मुख रात-दिन सुशोभित रहता है। मुख देखने मे अच्छा लगता है और कमल तथा चन्द्रमा बिना देखे अर्थात् केवल सुनने मे अच्छे लगते हैं। इसलिए हे सखि! मुख मुख ही है। न तो वह कमल है और न चन्द्रमा।

१७---लाक्षणिकोपमा

दोहा

लक्षण लक्ष्य जु बरणिये, बुधि बल बचन बिलास।
है लक्षण उपमा सु यह, बरणत केशवदास॥३७॥

'केशवदास' कहते है कि जहाँ लक्षण (उपमान) और लक्ष्य (उपमेय) का वर्णन अपने बुद्धि बल या वचन चातुर्य से किया जाता है, वहाँ 'लाक्षणिकोपमा' कही जाती है।

उदाहरण

कवित्त

वासो मृग अंक कहै, तो सो मृगनैनी सबै,
वह सुधाधर, तुहूँ सुधाधर मानिये।