उदाहरण
कवित्त
दुहूँरुख मुख मानौ, पलट न जानी जात,
देखिकै अलात जोत जाति होति मंद लाजि।
'केशौदास' कुशल कुलाल चक्र चक्रमन,
चातुरी चितै कै चारु चातुरी चलत भाजि।
चंद जू के चहूंकोद वेष परिवेष कैसो,
देखत ही रहिए न कहिए वचन साजि।
धाप छांडि आपनिधि जानि दिशि दिशि रघु-
नाथ जू के छत्र तर भ्रमत भ्रमीन बाजि॥७॥
श्री रामचन्द्र जी का भ्रमणकारी घोडा दौडने का मैदान छोडकर तथा चारो ओर समुद्र ही समुद्र समझता हुआ उन्हीं के छत्र के नीचे चक्कर काट रहा है। मानो उसके मुख का रुख दोनो ओर है, उसकी पलट ज्ञात ही नहीं होती अर्थात् इतनी शीघ्रता से पलट जाता है कि ज्ञात ही नहीं होता कि कब पलट गया। उसे देखकर बनेठी की ज्योति भी लज्जित होकर मन्द पड़ जाती है। 'केशवदास' कहते है कि उसके भ्रमण की चतुरता को देखकर कुम्हार के चाक के घूमने की शीघ्रता भाग जाती है। चन्द्रमा के चारो ओर होने वाले परिवेष ( घेरा ) की भाँति उसे देखते ही रह जाना पडता है, कुछ कहा नहीं जाता।
३-कुटिलवर्णन
दोहा
अलक, अलिक, भ्रुकुंचिका किंशुक शुकमुख लेखि।
अहि, कटाक्ष, धनु, बीजुरी, ककनभग्न विशेखि॥८॥
बाल, चद्रिका, बालशशि, हरि, नख शूकरदंत।
कुदालादिक वरणिये, कपटी कुटिल अनंत॥९॥