पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/४३

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उपकृतं बहु मित्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवता परा।


विवधदीदृशमेव सदा सखे सुखितमास्स्व ततः शरदां शतम् ॥

‘आपने बड़ा उपकार किया––अपनी सज्जनता प्रकट की । ऐसा ही उपकार करते हुए आप चिरंजीवी हों’ ।

(३) तीसरा आक्षेप काव्य के प्रति यह है कि इसमें अश्लील शब्द और अर्थ पाये जाते हैं ।

इसका समाधान यह है——जहाँ जैसा प्रक्रम आ जाय वहाँ वैसा वर्णन करना उचित ही है । अश्लील काव्यों के द्वारा भी अच्छे-अच्छे उपदेश हो सकते हैं । और अश्लील वाक्य तो वेदों में और शास्त्रों में भी पाये जाते हैं । फिर काव्यों ही पर यह आक्षेप करना उचित नहीं है ।

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वाक्य ही को ‘वचन’ ‘उक्ति’ कहते हैं । कहनेवालों के भेद के अनुसार वचन तीन प्रकार के माने गये हैं--ब्राह्म, शैव, वैष्णव । वायुपुराण आदि पुराणों में जो वचन ब्रह्मा के कहे हुए मिलते हैं उन्हें ‘ब्राह्म’ कहते हैं । इन ब्राह्म वचनों के पांच प्रभेद हैं--स्वायम्भुव. ऐश्वर, आर्ष, आर्षीक, आर्षि-पुत्रक । ‘स्वयम्भू’ हैं ब्रह्मा--उनके वचन 'ब्राह्म’ हैं । ब्रह्म के सात मानस-पुत्र-भृगु (अथवा वसिष्ठ), मरीचि, अंगिरस्, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह,ऋतु--का नाम है ‘ईश्वर’--इनके कहे हुए वचन ‘ऐश्वर’ हैं । इन ईश्वरों के पुत्र हैं ऋषिगण--इनके वचन हैं ‘आर्ष’। ऋषियों की सन्तान हैं ऋषीकगण--इनके वचन हैं ‘आर्षिक’ । ऋषिकों के पुत्र हैं ऋषि-पुत्रक--इनके वचन हैं ‘आर्षिपुत्रक’ ।

इन पाँचों वचनों के लक्षण यों हैं--

(१) सर्वभूतात्मकं भूतं परिवादं च यद् भवेत् ।

क्वचिन्निरूमोक्षार्थ वाक्यं स्वायम्भुवं हि तत् ॥

अर्थात्--‘स्वायम्भुव’ वाक्य वह है जो सकल जीव-जन्तु के प्रसंग यथावत् उक्ति है और कहीं-कहीं मोक्ष का भी साधक है ।

(२) व्यक्तक्रममसंक्षिप्तं दीप्तगम्भीरमर्थवत् ।


प्रत्यक्षं च परोक्षं च लक्ष्यतामैश्वरं वचः॥

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