पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

आत्मज्ञानपरिचय

माधव ! मोह फाँस क्यों टूटै ?

बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रंथि न छूटै ।

घृत पूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।

ईंधन अनल लगाइ कलप-सत औटत, नास न पावै ।।

तरु कोटर महँ बस बिहंग, तरु काटे मरै न जैसे ।

साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं जैसे।

अंतर मलिन, विषय मन अति तन पावन करिय पखारे।

मरै न उरग अनेक जतन बलमीक बिबिध बिधि मारे।।

तुलसिदास हरि-गुरु-करुना-बिनु बिमल बिबेक न होई ।

बिनु बिबेक संसार घोर निधि पार न पावै कोई ।।

[तुलसीदास—विनयपत्रिका]
 

विवेकपरिचय

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय ।

नाम भजो तो अब भजो, बहुरि भजोगे कब्ब ।

हरियर हरियर रूखड़े, ईंधन हो गये सब्ब ॥

[कबीर——साखी]
 

कितक दिन हरि सुमिरन बिनु खोये।

पर निंदा रस में रसना के जपने परत उबोये ॥

तेल लगाइ कियो रुचि मर्दन बस्त्रहिं मलि मलि धोये।

तिलक लगाइ चले स्वामी बनि बिषयनि के मुख जोये।

कालबली ते सब जग कंपत ब्रह्मादिकहू रोये।

‘सूर’ अधम की कहौ कौन गति उदर भरे परि सोये ॥

[सूरदास]
 
- ८९ -