पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/१०७

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क्रांतिकारिणी

ग्रेट ब्रिटेन के इस्पाती शिकंजे में दबे हुए भारत की एक दर्द-भरी कराह का एक स्नैपशाट लेने का लेखक को कहीं अकस्मात् ही एक सुअवसर मिल गया है। कहानी कहते-कहते लेखक शायद हंसना चाहता था, परन्तु उसकी आंखें पहले ही गीली हो गई। साहित्यकार का सहृदय होना भी तो एक आफत ही है।

गर्मी बड़ी तेज़ थी। पर क्या किया जाए, मित्र की कन्या के विवाह में तो जाना ज़रूरी था। तबियत ठीक न थी, छोटे बच्चे को चेचक निकल आई थी। पत्नी ने बहुत ही नाक-भौं सिकोड़ी, पर मुझे जाना ही पड़ा। मैं इण्टर क्लास के एक छोटे डिब्बे में अनमना-सा होकर जा बैठा। मन में तनिक भी प्रसन्नता न थी। बच्चे का ध्यान रह-रहकर पाता था। लू और धूप दोनों अपने ज़ोर पर थीं। डिब्बे में मैं अकेला था। गाड़ी ने सीटी दी। जो लोग प्लेटफार्म पर खड़े थे, लपककर अपने-अपने डिब्बे में चढ़ गए। मैंने देखा, मेरे डिब्बे में भी एक युवती लपककर सवार हो गई है।

उसकी आयु बीस-बाईस वर्ष की होगी। वह दुबली-पतली थी। नाक कुछ लम्बी, पर सुडौल थी। होंठ पतले और दांत श्वेत और सुन्दर थे। आंखें बड़ी-बड़ी थीं, उनमें कुछ अद्भुत गूढ़ता छिपी थी। वे चंचल भाव से चारों तरफ नाच रही थीं। साधारणतया वह एक साधारण युवती दिखलाई पड़ती थी, पर ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता था कि वह कुछ दिन पूर्व सुन्दर रही होगी अब भी वह सुन्दर थी। पर अब चिन्ता और कठोर जीवन ने उसके उठते हुए यौवन को जैसे झुलसाकर विद्रूप कर डाला था।

मैं बारम्बार उसे कनखियों से देखने लगा। मन में कुछ बुरा भाव न था; पर वह कुछ अद्भुत-सी लग रही थी। मुझे इस तरह घूरते देखकर वह कुछ विचलित हो उठी। वह बारम्बार खिड़की से बाहर मुंह निकालकर देखती थी, मानो