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क्रांतिकारिणी
 


'मैं केवल एक दिन आपके मित्र के यहां ठहरना चाहती हूं।'

मेरे मित्र मेरठ के प्रसिद्ध रईस हैं। उनका वहां अपना घर है, बहुत भारी कोठी है। इस युवती को वहां ठहराने में कोई बाधा न थी। मेरे मुंह से निकलना चाहा कि अवश्य, पर मैं सोचने लगा-यह इतनी निर्भीक, तेजस्विनी और अद्भुत युवती कौन है? एकाएक मेरे मुंह से कुछ बात न निकली।

वह कुछ देर चुपचाप मेरी तरफ देखती रही। कुछ क्षण बाद मैंने पूछा-- परन्तु आपका परिचय?

उसने रुष्ट होकर कहा-परिचय कुछ नहीं। और वह मुंह फेरकर फिर गाड़ी के बाहर देखने लगी।

न जाने क्यों मैं अपने-आपको धिक्कारने लगा। मैंने सोचा अनुचित बात कह डाली। मुझे किसी युवती का इस प्रकार परिचय पूछने का क्या अधिकार है। पर एकाएक किसी अपरिचित युवती को मैं किसीके घर में क्या कहकर ठहरा सकता हूँ।

उस युवती का कुछ ऐसा रुबाब मेरे ऊपर सवार हुआ कि मैंने अपनी कठिनाई बड़ी ही अधीनता से उसे सुना दी। उसने उसी भांति तीक्ष्ण दृष्टि से मेरी ओर ताकते हुए स्थिर स्वर से कहा-इसमें कठिनाई क्या है?"

'वे लोग आपका परिचय पूछेगे।'

'कहिए, बहिन हैं, दूर के रिश्ते की हैं। ये भी चली आई हैं। विवाह-समारोह में तो स्त्रियां विशेष उत्सुक रहती ही हैं।'

मैं अब अधिक नहीं सोच सका। मैंने कहा--तब चलिए, वह एक प्रकार से मेरा ही घर है, कुछ हर्ज नहीं। पर अब तो आप बहिन हुईं न, अब तो परिचय दीजिए।

परिचय का नाम सुनकर फिर उसकी त्योरियों में वल पड़ गए, और वह रोष में आ गई। उसने अत्यधिक रूखे स्वर में कहा-तीन बार तो कह चुकी महाशय, परिचय कुछ नहीं।

अब मुझे कुछ भी कहने का साहस न हुआ। वह भी नहीं बोली। चुपचाप गाड़ी से बाहर ताकती रही। गाजियाबाद आ गया।

मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू करने के विचार से पूछा-आपको कुछ चाहिए तो नहीं?