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ग्यारहवीं मई

११ मई, सन् १८५७ के ऐतिहासिक दिन पर एक रोमांचक कहानी।

ठीक साढ़े तीन बजे। सारी दिल्ली सो रही थी, लालकिले के बारूदखाने की ऊपरी मंज़िल में गंगाजमनी पिंजरे के भीतर से, जिसपर कारचोबी की वस्तनी चढ़ी थी, बुलबुल हज़ारदास्तान ने अपनी कूक लगाई। रात के सन्नाटे में उस सुरीले पक्षी का यह प्रकृत राग रात की बिदाई का सूचक था। कूक सुनते ही बहरामखां गोलन्दाज़ कल्मा पढ़ता हुआ उठ बैठा और तोप पर बत्ती दी। मोतीमस्जिद में अज़ान का शब्द हुआ। चप्पी-मुक्कीवालियां शाही मसहरी पर आ हाज़िर हुईं और धीरे-धीरे बादशाह के पांव दबाने लगीं। बादशाह की नींद खुली। वे तुरन्त नित्य-कृत्य से निपटकर मस्जिद में आ नमाज़ में सम्मिलित हो गए। उन्होंने सबके साथ नमाज़ पढ़ी और फिर वजीफा पढ़ने लगे। सूर्योदय के साथ ही बादशाह मस्जिद से निकले, चारों ओर मुजरा करनेवाले खड़े थे, दरवाजे पर पहुंचते ही हाथ में सुनहरी बल्लम लिए जसोलनी ने आगे बढ़कर ऊंचे स्वर में पुकारा:

'पीरो-मुर्शद हुजूरपाली बादशाह सलामत उम्रदराज़।' तीन बार उसने यह वाक्य घोषित किया। इसके बाद ही दरबारीगण अदब से झुक गए और बादशाह को देखते ही बोले:

'तरक्किए-इकबाल, दराजे-उम्र।'

बादशाह ने दीवाने-फरहत में प्रवेश किया। असीले अदब से सिर नवाए खड़ी थीं। आंगन में एक सुसज्जित तख्त बिछा था, बादशाह उसपर बैठ गए। जसोलनी दारोगा दोनों हाथों में अतलस चढ़ी बुकचियां लिए या हाज़िर हुई। गुसलखाने के दारोगा ने सामने आ सिर झुकाया। बादशाह उठकर गुसल करने चल दिए। जौनपुरी खली, सुगन्धित बेसन, चंबेली, शब्बो, मोतिया, बेला, जुही, गुलाब के तेल बोतलों में भरे क्रम से रखे थे। शक्काबे में एक ओर ठण्डा और दूसरी ओर