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ग्यारहवीं मई
 

गर्म पानी भरा था, चांदी के लोटे और सोने की लुटियां जगमगा रही थीं। गुस्ल हुआ और बादशाह पोशाक के कमरे में चले गए। ख्वाजा हसनबेग दारोगा ने आकर आदाब बजाया। उसने लखनऊ की चिकन का कुर्ता, दोनों ओर तुक में धुंडियां, लट्ठ का चौड़े पांयते का पायजामा जिसमें दिल्ली का कमरबन्द पड़ा था-हाजिर किया। बादशाह ने कपड़े बदले। मखमली चप्पल पहने। अब शमीमखाने का दारोगा आ हाज़िर हुआ, उसने सिर में तेल डाला, कंधा किया, कपड़ों में इत्र लगाया। बादशाह तस्बीहखाने में आए, माला फेरी, कुछ दुआएं पढ़ीं और दीवानेखिलवत में चले गए। दवाखाने के मुन्तज़िम ने आगे बढ़कर कोनिश की और हकीम अहसन की सील-मुहरबन्द शीशियां पेश की। मुहर तोड़ी गई और याकूती की प्याली तैयार की गई, तभी खवास ने चांदी की तश्तरी में छिलकोंसमेत दो तोला भुने चने पेश किए, बादशाह ने याकूती की प्याली पी, फिर चनों से मुंह साफ किया और बेगमी पान की एक गिलौरी खाकर मिट्टी के कागजी हुक्के को मुंह लगाया। इतने ही में खबरों का अफसर आ हाज़िर हुआ, रात-भर की खबरें सुनाई गई। बादशाह ने एक पान की गिलौरी और खाई और उठकर दीवाने-आम को चल दिए।

बादशाह तख्त पर बैठे। प्रत्येक विभाग का अधिकारी हाथ बांधे हाज़िर था, बादशाह ने सबकी ओर एक दृष्टि की। एकाएक एक चीत्कार ने उनका ध्यान भंग किया। एक भंगन रोती-पीटती चली आ रही थी, दीवाने-आम के सामने आकर वह धरती चूमकर और हाथ जोड़कर बोली:

'जहांपनाह, मिर्जा महमूद मेरी दो मुर्गियां ले गए।' लालकिले के बादशाह भंगन की फर्याद से खिन्न होकर बोले-रो मत, जा मुर्गियां आती हैं।

भंगन ज़मीन चूमती हुई उलटे पैर लौट गई, शाहज़ादा मिर्जा महमूद की तलबी हुई। वे आंखें नीची किए आ खड़े हुए।

'अरे महमूद! गरीब भंगन की मुर्गियां, हाय-हाय!' बादशाह ने करुण भाव से कहा, फिर अलीअहमद दारोगा की ओर देखकर बोले-दिलवा दो, और एक बढ़ती।

मिर्जा महमूद ने धरती चूमी और दारोगा ने उन्हें संग ले जाकर तीन मुगियां भंगन को दिलवा दीं।