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ग्यारहवीं मई
 

अंग्रेज अफसर हाथ, पैर और चेहरे पर कालिख पोत, फटे चिथड़े पहन कहीं के कहीं भाग निकले थे। सड़कों पर घोड़ों, बग्घियों, पालकियों और पैदलों की भरमार थी। चारों तरफ से बन्दूकों की आवाजें आ रही थीं। घायलों और मरनेवालों के कराहने की आवाज़ों से कलेजा कांप रहा था। सारे बाजार बन्द, सारी गलियों में सन्नाटा, सारे घर बन्द। विद्रोहियों ने नगर में एक घोड़ा भी नहीं छोड़ा था। सब छीन ले गए थे। जिन दुकानदारों ने उनसे दाम मांगा उनको उन्होंने मार डाला। बिना किसी छोटे-बड़े का लिहाज़ किए सबसे बदज़बानी की। मुसाफिरों को लूट लिया। शहरवाले भूखे मर रहे थे। विधवाएं मकानों में रो रही थीं। वे विद्रोहियों को गालियां दे रही थीं। नित नया कोतवाल बदलता था। जहां नकद रुपया दीखता विद्रोही लूट लेते थे। सब रुपया सिपाहियों के अधिकार में था। शाही खजाने में एक पैसा भी जमा न था, किसी-किसी विद्रोही रेजीमेण्ट के पास इतना रुपया जमा हो गया था कि वे मुश्किल से कूच कर सकते थे। बोझ कम करने को उन्हें रुपयों की मुहरें बदलवानी पड़ती थीं। महाजनों ने मुहरों का भाव इतना बढ़ा दिया था कि सोलह की मुहर चौबीस-पचीस की मिलती थी। जैसे उन्होंने महाजनों को लूटा था उसी भांति महाजन अब उन्हें लूटते थे। बहुधा पीतल की अशफियां तक बेच दी जाती थीं। जिस रेजीमेण्ट को लूट का माल हाथ न लगा था वे रुपयेवालों पर ईर्ष्या करते थे। रुपयेवाले सिपाही लड़ाई से कतराते थे। इससे दूसरी रेजीमेण्ट के सिपाही उन्हें लानत-मलामत देते थे। कभी-कभी दोनों में ठनते-ठनते रह जाती थी।

बादशाह की तरफ से प्रत्येक पैदल को चार आना और सवार को एक रुपया रोज़ भत्ता मिलता था। शाहजादे फौज के अफसर बना दिए गए थे। पर ये ऐश के पुतले दया के पात्र थे। बेचारों को दुपहरी की धूप में घोड़े पर चढ़कर घर से बाहर निकलना मुसीबत थी। इन्होंने गजलें सुनना, शराब पीना और मौज करना सीखा था। तोप और बन्दूकों की आवाज़ से इनके दिल धड़कते थे। न ये बेचारे परेड कराना जानते थे, न फौज का संचालन, न उनपर शासन ही कर सकते थे। उनकी मूर्खता पर सिपाही हंसते थे। कभी-कभी बदज़बानी भी कर बैठते थे। जो शाही फौज थी वह तो और भी बहादुर थी। जब उसका जी चाहता युद्धस्थल से लौट आती थी। ये लोग पैरों पर ज़ख्म के बहाने चिथड़े लपेटकर हाय-तोबा करते, लंगड़ाते वापस चले आते थे। ये लोग मारतों के पिछाड़ी और भागतों के अगाड़ी