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ग्यारहवीं मई
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थे। बाहशाह सलामत फौज के लिए मिठाई वगैरा युद्ध स्थल में भेजते थे तो यार लोग रास्ते ही में उसे लूट लेते थे।

जिन विद्रोहियों का मतलब हल हो चुका था और जेबें भर गई थीं, उन्होंने अपनी तलवारें और बन्दूकें कुओं में डाल दी थीं; और तितर-बितर होकर जंगलों और देहातों में भाग गए थे। उन्हें भय था कि अंग्रेज़ी फौजें आ रही हैं। वास्तव में यदि उसी दिन अंग्रेज़ी फौजें आ जाती तो दिल्ली पर उसी दिन अधिकार हो जाता। इन्हें भी गांव के गूजरों ने खूब लूटा।

न तो बादशाह की आज्ञा ही कोई न मानता था, न शाहजादों ही को कोई पूछता था, न वे बिगुल की परवाह करते थे और न वे अफसरों की सुनते थे, न वे अपना कर्तव्य ही पालन करते थे। अपनी वर्दियां तक पहनने की उन्हें परवाह न थी। बेचारे शाहजादे जो इनके अफसर बनाए गए थे, अपनी फौज की भाषा तक नहीं समझ सकते थे। वे दुभाषियों के द्वारा बातें करते थे। वे अपने ऐशो-आराम की याद कर-करके पछताते थे।

शिल के गोलों से शहर के बहुत-से मकानात खंडहर हो चुके थे। दीवाने-खास में जो संगमर्मर का तख्त बिछा था, चूर-चूर हो गया था। अंग्रेजी स्कूल लूटकर जला डाला गया था और अंग्रेज़ी किताबें गली-कचों में पड़ी हुई थीं, जो अंग्रेजी बोलता था उसीकी सिपाही खूब मरम्मत कर डालते थे।

मेगजीन फटने से सैकड़ों मकान ढह गए थे। पांच सौ से अधिक आदमी मर गए थे। लोगों के मकानों में इतनी गोलियां गिरी थीं कि लड़कों ने आध-आध सेर और किसी-किसी ने सेर-सेर भर चुन ली थीं। मेगज़ीन फटने के बाद विद्रोही और गुण्डे उसे लूटने को टूट पड़े। जो सामान टोपी, बन्दूक, तलवार और संगीनें ले सके उठा ले गए। खलासियों ने घरों को उम्दा-उम्दा हथियारों से भर लिया और रुपये के तीन सेर के हिसाब से तोल-तोलकर बेच डाला। तांबे की चादरें रुपये की तीन सेर विकी। बन्दूक की कीमत आठ आना थी। फिर भी कोई खरीदता न था। अच्छी से अच्छी अंग्रेज़ी किर्च चार पाने में महंगी थीं और संगीन तो एक आने को भी कोई नहीं पूछता था। तोपदान और परतले इतने अधिक थे कि लूटनेवालों को इसका एक पैसा भी नहीं मिलता था। मजनू के टीले में जितनी बारूद थी, आधी तो गूजरों ने लूट ली थी और आधी शहर में आ गई थी।