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ग्यारहवीं मई
 


सिर्फ सात मास बाद २७ जनवरी, १८५८ को तख्ता पलट चुका था। वही बदनसीब दीवाने-खास था। चीफ कमिश्नर पंजाव सर जान लारेंस की आज्ञा से भाग्यहीन बादशाह पर एक योरोपियन फौजी कमीशन की अधीनता में मुकदमा चलाया जा रहा था। लेफ्टिनेण्ट कर्नल डास प्रधान विचारक के आसन पर थे। बादशाह मुहम्मदशाह अभियुक्त की हैसियत से अदालत में हाज़िर थे। दीवानेखास की सुनहरी छत लरज रही थी और उसके संगमर्मर के खम्भे कांप रहे थे।

हलफ आदि की साधारण कार्यवाही होने के बाद बादशाह पर फर्द जुर्म लगाया गया जिसका मतलब यह था:

बादशाह मुहम्मद बहादुरशाह ने कम्पनी बहादुर के पेंशनयाफ्ता होने पर भी सैनिकों को बगावत करने में उत्तेजना और मदद दी। उन्होंने अपने बेटे मिर्जा मूगल को, जो सरकार अंग्रेजी की प्रजा था, और अन्यों को सरकार अंग्रेज़ी के विरुद्ध हथियार उठाने में मदद दी। उन्होंने ब्रिटेन की प्रजा होने पर भी उसके प्रति राजभक्ति नहीं रखी। और अपने को अनुचित रूप से बादशाहे-हिन्द प्रसिद्ध कर लिया। जिससे अनेक अंग्रेज़ औरतें, बच्चे व मर्द कत्ल कर दिए गए। ये सब एक्ट १६ सन् १८५७ की रू से भयानक अपराध हैं।

फर्द जुर्म सुनाने के बाद अदालत ने वादशाह से पूछा:

'मुहम्मद बहादुरशाह, तुमने ये अपराध किए हैं?'

बादशाह ने मुस्कराकर कहा-नहीं।

अदालत ने गवाह बुलाने का हुक्म दिया। परन्तु सरकारी वकील ने मुकदमे की तशरीह करते हुए कहा कि अदालत के अधिकार सिर्फ फैसले ही तक सीमित किए गए हैं। क्योंकि मेजर जनरल विलसन ने अभियुक्त से वादा किया है कि उसे प्राणदण्ड नहीं दिया जाएगा। क्योंकि अभियुक्त की ज़िन्दगी का जिम्मा कप्तान हड्सन ने लिया है, इसलिए इस फौजी कमीशन को अधिकार नहीं था कि अभियुक्त के लिए कोई दण्ड तजवीज़ करे।

कागज़ पढ़े जाने लगे और बादशाह बेहोश हो गए। विवश अदालत अगले दिन के लिए उठ गई।

वह बूढ़ा बदनसीब बादशाह रंगून के एक शानदार कैदखाने में एक लाचार लावारिस कैदी की भांति अपने आखिरी दिन बिताकर एक दिन मर गया!