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राजधर्म
१३५
 

'आपकी शरण में आया हूं।'

'कौन हो?'

'आपका दास सुवर्ण।'

'किसलिए?'

'प्रणाम करने और यह निवेदन करने कि आप सेवक को अपना शिष्य बनाइए।'

बुद्ध ने उत्तर नहीं दिया। कुमार चुपचाप खड़े रहे। रात बीत गई। उषा का उदय हुआ। बुद्धवाणी फिर प्रवाहित हुई-अब क्यों खड़े हो?

'प्रभु प्रसन्न हों, सेवक को शिष्य स्वीकार करें।'

बुद्ध मौन रहे। महाराजकुमार ने साहसपूर्वक कहा-क्या सेवक शिष्य होने के योग्य नहीं?

'नहीं।'

'सेवक का अभिवादन स्वीकार होगा?'

'नहीं।'

राजकुमार ने विगलित वाणी से कहा-प्रभु, मैं आपकी शरण हूं।

प्रबुद्ध विगलित हुए। उन्होंने कहा-अपनी राजधानी लौट जाओ वत्स, और धर्मपूर्वक राज्य-शासन करो।'

'परन्तु मैं महाप्रभु का शिष्य होने आया हूं।'

'उसकी तुममें योग्यता नहीं है। योग्यता प्राप्त होने पर बुद्ध स्वयं तुम्हें शिष्यपद देने पाएंगे। जाओ वत्स, न्याय-राज करो।'

'परन्तु प्रभु, मेरी अयोग्यता क्या है?' राजकुमार ने साहसपूर्वक कहा।

बुद्ध कुछ देर चुप रहकर बोले-तुमने अपने मंत्री को अधिकार-च्युत करके कारागार में डाला है न?

'हां महाराज, उसका अपराध भारी है। उसने प्रजा के साथ क्रूरता की थी, वह पतित और बेईमान था। उसने राजसत्ता का दुरुपयोग किया था। मेरा कर्तव्य था कि मैं अपराधी को दण्ड दूं, फिर वह चाहे जैसा भी प्रतिष्ठित हो। अन्ततः मैं राजा हूं। प्रजापालन मेरा धर्म है।'

'तुम राजा हो, प्रजापालन तुम्हारा धर्म है, अतः तुम अपराधी को दण्ड दो यह ठीक ही है, राजोचित भी है। पर वत्स! बुद्ध के शिष्य को यह उचित नहीं, क्षमा और उदारता ही उसका दण्ड है। हां, तुमने अपनी पत्नी को भी त्याग दिया है न?'