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राजधर्म
 

 'खेद की बात है कि वह अविश्वासिनी हो गई, वह पतिव्रता न रही। दूसरों के लिए आदर्श कायम करने के लिए उसे त्याग देना ही उचित था। उसके साथ अति उदार व्यवहार किया गया है। दूसरा व्यक्ति उसे कुत्तों से नुचवा डालता।'

बुद्ध ने हंसकर कहा-नहीं तो वत्स! एक पति और राजा का तो वही कर्तव्य था। इसके लिए तुम्हें दोष नहीं दिया जा सकता। इसीसे मैंने कहा था कि तुम जाओ, राज्य-शासन करो। तुममें राजा होने योग्य सब गुण हैं। पर बुद्ध के शिष्य होने योग्य नहीं। क्षमा बुद्ध का शस्त्र है,उदारता उसकी नीति है, सहिष्णुता उसका धन है, और आत्मनिग्रह उसका मार्ग है।'

'मेरे प्रभु, मुझे आप उसी मार्ग पर लाइए।'

'अभ्यास करो वत्स। ज्योंही तुममें मेरे शिष्य होने की योग्यता प्राप्त होगी, मैं स्वयं ही तुम्हारे पास पाऊंगा।' बुद्ध समाधिस्थ हुए। महाराजकुमार नतमस्तक हो चल दिए।

सारे ही नगर में हलचल मच रही थी। राजधानी में विद्रोह के लक्षण दिखाई दे रहे थे। महाराजकुमार ने पदच्युत मंत्री को न केवल अपने पद पर प्रतिष्ठित किया था, प्रत्युत उसकी सम्पत्ति भी उसे लौटा दी थी। अपनी दुराचारिणी रानी को भी उसने फिर से अन्तःपुर में बुला लिया था और उससे क्षमा मांगी थी। सारा समाज और विद्वत्-समूह उसके इस अनाचारपूर्ण काम से विद्रोही हो उठा था। यही नहीं, उसने सेनाएं विसर्जित कर दी थीं, जेलों के द्वार खोल दिए थे।

मन्त्री ने कहा-महाराज, आपने मुझ अधम को फिर से मंत्री-पद पर प्रतिष्ठित करके जनमत को तुच्छ कर दिया है। मेरा अपराध गुरुतर था। आप मुझे पदच्युत करें, मैं प्रायश्चित्त करूंगा।

राजकुमार ने कहा-मंत्री, मुझे तुम्हारा विश्वास है। प्रेम और सेवा ही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है।'

'परन्तु महाराज, लोग आपके घात करने की चिंता में हैं।'

'अगर मेरा घात करने से उन्हें सुख मिले तो उन्हें यह काम करने दो। तुम इसकी चिन्ता न करो। तुम अपना काम करो-प्रेम और सेवा।'

न्यायाधीशों का एक दल त्यागपत्र लिए आ पहुंचा। उन्होंने कहा-महाराज, हम न्याय नहीं कर सकते। न सेना, न सिपाही, न जेल। फिर हम दण्ड कैसे दें?

क-८